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स्पा० क० टोका एवं हिलो दिन ]
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| लोहित्य - अपरोक्षता की तरह घट-अपरोक्षता की उपपत्ति की आशंका ]
के यदि यह कहा जाय कि- “स्फटिक में जपाकुसुम का अध्यास न होने पर भी जैसे जपाकुसुम लौहित्य का संसगध्यास होने से स्फटिक में लौहित्य का अध्यास न होने पर भी लौहित्य के संसर्गमात्र का अध्यास होने से लौहित्य की अपरोक्षता होती है उसी प्रकार जोवचंसन्य में घट का अध्यास न होने पर भी घटसंसर्गे के अध्यास ही घट की अपरोक्षता हो सकती है।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जपाकुसुम संनिहित स्फटिक स्थल में लौहित्य अपरोक्ष रहता है । अतः स्फटिक में उस का अध्यास न होने पर भी उस के संसर्गाध्यास मात्र से उस की अपरोक्षता हो सकती है। किन्तु जो वस्तु अपरोक्ष रहेगी उस के संसर्ग के अध्यास मात्र से उस को अपरोक्षता नहीं हो सकती । अतः स्फटिक में लौहित्य का आरोप यह गृह्यमाणविषयक श्रारोप होने से और जीवचैतन्य में घटाध्यास के प्रभाव में घटप्रत्यक्ष अगृह्यमाणआरोपात्मक होने से दोनों में अन्तर है । अतः स्फटिक में लौहित्य के अपरोक्षज्ञान के दृष्टान्त से बहिर्वेशन घट का जीवचैतन्य में प्रध्यास हुये बिना उस के अपरोक्षत्व का उपपादन नहीं हो सकता
दूसरी बात यह है कि यदि जीवचैतन्य में घट के अनिर्वचनीय प्रातिभासिक संसर्ग की उत्पत्ति होगी तो वह संसर्ग प्रामाणिक नहीं हो सकेगा क्योंकि प्रातिभासिकत्व और प्रामाणिकत्व का विरोध है। जब वह संसर्ग प्रमाणिक नहीं है, तब उस के द्वारा घट प्रपरोक्ष होने की आशा दुराशामात्र है ।
अतः युक्तिसंगत बात यह है कि जीवचैतन्य में घट का सम्बन्ध प्रमाणवृत्ति द्वारा नहीं होता किन्तु श्राध्यासिकसम्बन्ध द्वारा होता है । और उसी से घटोपलम्भक घटाधिष्ठान चैतन्य के साथ जीवचैतन्य का उक्त उपाधि 'वृत्तिसंसृष्टघट' प्रथवा 'घटसंसृष्टवृत्ति' में जोवतव्य का अमेथ अभिव्यक्त होता है । यह प्रभेदापत्ति हो वृत्ति के बहिनिगम का प्रयोजन है । अतः उक्तरीति से जीवचेतन्य में अध्यस्त होने से घट जीव के प्रति श्रपरोक्ष होता I
अथवा आवरणाभिचार्था वृत्तिः, सर्वगतेऽपि जीवचैतन्येऽखण्डावरणस्य स्वविषयचैतन्यगोचरप्रमात्रा दिविस्पष्टव्यवहारप्रतिबन्धकेऽन्तःकरण । द्युपाधेरुत्तेजक स्थानीयत्वेन तत्प्रतिबध्य कार्यो दयात् । किमर्थमस्मिन् पक्ष उभयचैतन्याऽभेदाभिव्यक्तिः १ 'प्रमाद चैतन्यमेव विषये परिणामसंसृष्टेऽमिव्यक्तं फलं भवद् घटं विषयीकुरुतामिति चेत् १ ब्रह्माष्यस्तस्य तस्य संविदमेदरूपापरोक्षत्वायैव तदेवं घटादेरपरोचता । वह्वयादेस्तु प्रमाद चैतन्य निष्ठाज्ञान मात्र निवृत्तावप्युभयचेतन्यामेदाभिव्यक्त्यभावात् वृतेश्चान्तरेवोत्पादात् परोक्षता । रजतादेव शुक्त्याद्यज्ञानसमुत्पन्नस्यानिर्वचनीयस्येदंच्या इदमेशस्य घटादिन्यायेनाऽपरोक्षत्वात् प्रमातृचैतन्याऽभिन्नेद मंशचैवन्येऽभ्यस्तस्वात् सुखादिवदपरोक्षत्वम् । इदमंशतादात्म्येनोललात्वाच्च 'इदं रजतम्' इति प्रत्ययः । 'सत्' इति च तत्र शुक्तिसत्चैव भासते । न चान्यथाख्यातिः, तत्संसर्गस्याऽनिर्वचनीयत्वात् । न चैवं भ्रमानुमित्यादौ चेरिव देशान्तरीयरजतस्य संसर्गोत्पत्यैव निर्वाहः वचेोरिव रजतस्य परोक्षत्वापतेः । शुक्ति-सयोस्त्वपरोक्षत्वं प्रमाणदृश्यैव, इदमंशवत् ।