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[ शास्त्रवा० स्त०८ श्लो० १ घटस्य कथमन्तःकरणोपहिते जीवचैतन्येऽभ्यासः १ 'घटाऽव्यवहिततया घटावच्मिजीव चैतन्यस्याऽसङ्गस्याभ्यासिकघटसंसर्गार्थं तदुपगम' इति चेत् १ तथा सति ब्रह्माध्यस्तघटसंसर्गो जीव चैतन्ये उत्पन्नः प्रामाणषुच्येति स एव जीवाऽपरोक्षः स्याद् न घटः । न हि देशान्तरीयरजततादात्म्योत्पत्तावपि रजतापरोक्षत्वं सिध्यति । लौहित्यस्य त्वपरोक्षदशायां संसर्गः स्फटिके जायते, गृप - माणारोपत्वादिति न संसर्गाऽपरोक्षत्वेन संसर्गिणोऽपरोक्षत्वम् । किञ्च, उत्पद्यमानः संसर्गोऽनिर्णचनीयः प्रातिभासिको न प्रमाणिकः संभवति, विरोधात् । तस्माद् न जीवचैतन्ये घटोपरागः प्रमाणश्या जायते किन्त्वाप्यासिक संबन्धेन, घटस्फोरकघटाधिष्ठान चैतन्येन जीव चैतन्यस्योक्वोपाधाव मेदोऽभिव्यज्यते । इत्येवं स्वाध्यस्ततया घटाऽपरोक्षत्वम् ।
| जीवचैतन्य - विषयचैतन्य में अभेद अवश्यमंतव्य है ]
उक्त निरूपण के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि "ब्रह्माध्यस्त घट प्रमाणवृत्ति द्वारा जीव में अध्यस्त होता है - केवल इतना ही माना जाय, क्योंकि केवल इतने से ही घट में जीव की अपरोक्षता उपपन्न हो जाती है। अतः विषयचैतन्य और जीवचेतन्य में अभेद मानने की क्या श्रावश्यकता है ? " - इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्ती का कहना है कि यह प्रश्न निराधार है, क्योंकि यदि जीवचैतन्य और विषयचैतन्य की अभेदापत्ति न मानो जायगी तो अन्तःकरण की विषयाकार वृत्ति का शरीर से बाहर निःसरण मानना ही व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि उक्त प्रभापति के अतिरिक्त उस का और कोई प्रयोजन नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि जीवचैतन्य और विषयचैतन्य में अापत्ति को स्वीकार न किया जायगा तो बहिर्देशवृत्ति घट का अन्तःकरणोपहित जीवचैतन्य में प्रध्यास कैसे हो सकेगा ?
[ वृत्तिवधिनिर्गमन के अन्य प्रयोजन की आशंका ]
अध्यवधान
यदि यह कहा जाय कि 'जीवतन्य और विषय चैतन्य की श्रमेवापत्ति न मानने पर भी वृत्ति के बहिर्निर्गमन को व्यर्थता नहीं होगी. क्योंकि वृत्ति द्वारा जीवचैतन्य से घट का सम्पादन होने पर घटावच्छिन्न जीवचैतन्य, जो निसर्गतः असंग है उसका घट के साथ आध्यासिक संसर्ग का सम्पादन हो वृत्ति के बहिर्निर्गमन का प्रयोजन है ।" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म में घटसंसर्ग का अध्यास मानने पर भी कोई लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि इस प्रभ्युपगम में जीवचैतन्य में बहिर्निर्गत प्रमाण वृत्ति द्वारा घट का संसर्ग ही उश्पक्ष होता है । अतः वही जोय को अपरोक्ष हो सकता है। किन्तु बहिर्देशयत्त घट अपरोक्ष नहीं हो सकता । जीव चंतव्य में घट का आध्यासिक संसर्ग हो जाने से घट भी जीवचतन्य से सम्बद्ध हो जाता है अतः उस सम्बन्ध से ही घट भी जीव को अपरोक्ष हो सकता है' यह नहीं माना जा सकता। क्योंकि पुरोवतिशुषित- अवच्छिन चैतन्य में बेशान्तरस्थित रजत के तादात्म्य की उत्पत्ति मानने पर भी देशान्तरवर्ती रजत की अपशेक्षता नहीं सिद्ध होती । अत एव शुक्तिवेश में प्रातिभासिक रजत की उत्पत्ति मान कर उसी की अपरोक्षता मानी जाती है ।