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स्या० क टोका एवं हिन्दी धिवेचन ]
[रताकार वृत्ति अनावश्यक होने का आक्षेप ] रजत को उक्त रीति से इदमंशावच्छिन्न चैतन्य से अभिन्न प्रमातचैतन्य में अध्यस्त होने के कारण सुखादि के समान अपरोक्ष मानने पर यह शंका होती है कि-जसे सुखादि की अपरोक्षता के लिये सुखाद्याकारकृति आवश्यक नहीं होती उसी प्रकार रजत की अपरोक्षता के लिये भी रजता-- कारवृत्ति अनावश्यक होने से उसका स्वीकार नहीं करना चाहिये । क्योंकि शुक्ति-राजतस्थल में प्रमातृचैतन्य इस्मंशावच्छिन्न ब्रह्मवैतन्य से अभिन्न होने पर, 'रजतम्' इत्याकारक बोधात्मक प्रमातृ• चैतम्य इदमाकारवृत्ति में प्रतिफलित होने से इदमंश में प्रमाण होता है और उसी विषय में अभिव्यक्त होने से फल भो होता है । रजतांश में यह शुद्ध साक्षीस्वरूप हो होता है, उस अंश में प्रमाणरूप, फलरूप अथवा प्रमालारूप नहीं होता। क्योंकि रजताकार प्रमाणजन्यत्ति नहीं होती। अतः उस स्थल में जो रजताकार अविद्या को वृत्ति मानी जाती है, उस का कोई उपयोग नहीं है।
अत्र केचित्र-साक्षिचैतन्यं स्वतः स्फुरदप्यसङ्गतया तत्तद्विषयावभासनायासमर्थ ज्ञानसंशब्दि तवृत्तिप्रतिविम्बिनमेव विषयावभासकं भवति, इत्यज्ञान-सुखादीनामपि तदाकागऽविद्यावृत्तिप्रतिफलितचिद्रास्यत्वमेव, केवलसाक्षिवेद्यत्वं तु प्रमाणदृश्यनपेक्षत्वात, इत्यावश्यकी रजतवृत्तिः । अन्यथा सदा विषयविशिष्टाज्ञानानभासप्रसङ्ग साक्षिणि साक्षादध्यस्तत्वात, केवलाशनास्फुरणाश्च । उक्तरीत्या तु नायं दोषः, वृत्तेरमदातनत्वात्, अत एवैश्वरस्यापि सर्वज्ञता सर्वाकारमायावृत्यैव । 'इयं च धृत्तिरन्तःकरणपरिणाम एव, अत एव स्वप्नस्य मनोवृत्तित्वम्' इति केचित् । अन्ये तु-'सुषुप्तायन्तःकरणाभावादज्ञानसुखाद्याकासविद्यावृत्तेरावश्यकत्वे तयैव साक्षिवेद्यत्वोपपत्तौ न तथा' इत्याहुः ।
अपरे पुनः-'वृत्ती तादृशसामर्ये मानाभावाद् वृत्तिमानप्रयोजकाध्यासिकसंवन्धस्यैवाज्ञानादिभानप्रयोजकत्वे तत्कल्पनानवकाशाद् नाज्ञानाधाकाग त्तिर्मानार्था । अज्ञानविशेषणतया सदा घटादिसर्व विषयमान सिष्टमेव, मनुष्पत्वाभिमानवत् । अत एव स्वसत्तायामव्यभिचारिप्रकाशत्यपहंकारादीनामुक्तं ग्रन्थकारैः।
[ रजताकारवृत्ति की आवश्यकता का समर्थन ] इस शंका के समाधान में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि साक्षिचैतन्य यद्यपि स्वप्रकाश है तथापि असङ्ग होने से विभिन्न विषयों के अवभासन में असमर्थ होता है । अत: ज्ञान शब्द मे व्यवहुत वृत्ति में प्रतिविम्बित होकर ही साक्षिचैतन्य विष्य का अवभासक होता है। अतः अज्ञानमुखादि पदार्थ भी तत्तदाकार अविद्यावृत्ति में प्रतिबिम्बित चैतन्य से ही अवास्य होते हैं। उन में केवल साक्षिवेधत्व का व्यवहार उन के भान में प्रमागजन्यवृत्ति की अपेक्षा न होने से हो होता है । अतः शुक्तिरजतादि के साक्षिप्रयुक्त भान के लिये भी अविद्या की रजताकार वृत्ति आवश्यक है । यदि साक्षि को वृत्तिनिरपेक्ष होकर प्रज्ञान का भासक माना जायगा तो विषयविशिष्ट अज्ञान के सर्वदा अवभास होने की प्रसक्ति होगी। क्योंकि अज्ञान साक्षि में साक्षात् अध्यस्त होता है और विषय से अविशेषित अज्ञान का स्फुरण नहीं होता। किन्तु अविद्या वृत्तिसापेक्ष साक्षिभास्य मानने पर यह दोष नहीं हो सकता क्योंकि