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स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
"आशामोदकप्ता ये ये चास्वादितमोदकाः ।
रस-वीर्य विपाकादि तुल्यं तेषां प्रसज्यते ॥१॥" इति । 'जागर-स्वप्नसुखयोः स्वाध्यस्तत्वेन तुल्यत्वेऽपि सत्याऽसत्यमोदकभक्षणजन्यत्वेन विशेष' इति चेत् १ न, तुल्यानानजन्यत्वेन द्वयोस्तुल्यत्वात् . तत्र पहिरन्तविभाग स्यापि स्वप्ने मोदकादेहिष्ट्वेनानुभवेन तुल्यत्वात् । 'तत्र बहिष्ट्वमध्यस्तमिति चेत् ? अन्यत्रापि तदध्यस्तत्वं सुवचम् । 'एकस्यैव सत्यमोदकस्य बहिर्बहुभिरनुभवात् तत्र बहिष्टवं नागेपितमिति चेत् ? स्वप्नेऽपि सुवचमेतत् । स्वप्ने प्रतिसंतानमनुभूतानां नानात्वे च जागरेऽपि प्रतिसंतानमनुभृतानाभेकत्वे का प्रत्याशा । गदृश्यसंबन्धाऽयोगादनन्तानिचनीयानां काल्पनिकतादात्म्याश्रयणापेक्षया तत्तदाकारगुत्पत्तेरेव लघुत्वेन वक्तुं युक्तत्त्वात् ।
[ स्वप्नज्ञानीय पदार्थ में सर्वत्र मिथ्यात्वबुद्धि असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त गौरव फलानुगुण होने से दोष नहीं माना जा सकता क्योंकि उक्त कल्पना मलने पर एक मिद्राोष की निसि होने पर भी स्वप्नायगत अर्थ में मिध्यात्वज्ञान को उपपति होती है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शुभाइष्ट से जहां किसो मावि अर्थ का स्वप्नज्ञान होता है और वह जानतकाल में अवश्य होने वाला है, उस अर्थ में निद्रादोष की निवृत्ति हो जाने पर भी मिथ्यात्वज्ञान नहीं होता। अतः निन्द्रानिवत्ति को स्वप्नावगत अर्थ में मिथ्यात्वद्धि का कारण नहीं माना जा सकता। यदि निवाविशेष को निवृत्ति को निद्राविशेषजन्य स्वप्नदृष्ट अर्थों में मिथ्यात्व प्रतिपत्ति का कारण माना जाय तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि हेतुविशेष के विना निद्वाविशेष की उपपत्ति नहीं हो सकती। अत: इस कल्पना के लिये निद्राविशेष के कारण विशेष की कल्पना करनी होगी जो दुर्वच है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि यदि स्वाप्निपदार्थ मूलाज्ञान से जीव में अध्यस्त होगा तो जाग्रदशा में जीव में मूलाज्ञान से अव्यस्त होने घाले वस्तु के समान होगा, अतः जाग्नदशा में मोदकभक्षणजन्य जैसा सुख होता है स्वप्नदशा में भी उसी प्रकार के सुख को आपत्ति होगी। अतः यह न्याय बल से प्रसक्त होगा कि जो पाशामोदक यानी काल्पनिक लड्डु से तृप्त होते हैं और जो वास्तवमोदक का भक्षण करते हैं उन दोनों में प्रतीयमान मोदकों में साम्य मानने पर समानरूप से रस-बीर्थ-विपाकादि की प्रसक्ति होगी।
यदि यह कहा जाय फि-'जाग्रत्कालीन सुख और स्वप्नकालीन सुख दोनों प्रमातृचैतन्य में अध्यस्त होने से यद्यपि तुल्य है तथापि एक सत्यमोद कभक्षणजन्य है और एक असत्यमोदकभक्षणजन्य है अतः उन दोनों में वैलक्षण्य न्यायसङ्गत है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तुल्य अज्ञान से जन्य होने के कारण मोदकों में भी तुल्यता होने से उसमें सत्यासत्य का भेव नहीं हो सकता। बाह्म और प्रान्तर रूप से भी जाग्रत्कालिक मोदक और स्वामकालीन मोदक में अन्तर नहीं हो सकता क्योंकि स्वप्नकालीन मोदक में भो बहिष्टद का अनुभव होता है । स्वप्नमोदक में बहिष्ट्र को प्रध्यस्त कह कर भो उसमें जाग्रत्कालोनमोदक का वैलक्षप्य नहीं उपपन्न किया जा सकता क्योंकि जाग्नत् मोदक में भी बहिष्व अध्यस्त ही होता है।