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[ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो०७
यदि यह कहा जाय कि “एक हो सत्यमोदक में बहु लोगों को बहिष्ट्य का अनुभव होता है। प्रत एव उसमें बहिण्टव को पारोपित नहीं माना जा सकता"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्न में भी यह बात समानरूप से कही जा सकती है, अर्थात् स्वप्न में दृश्यमाण एक मोदक में स्वप्नावस्था में अनेक मनुष्य को बहिष्टव का दर्शन होता है क्योंकि निद्रित मनुष्य यह अनुभव करता है कि जिस मोदक को यह देख रहा है उसे उसकी स्वप्नावस्था में दोखने वाले अन्य अनेक मनुष्य भी देख रहे हैं। यदि यतका
कहा जाय कि-"स्वप्न में भिन्न भिन्न दृष्टासन्तान को दीखाई देने वाला मोदक एक नहीं किन्तु अनेक होता है"-तो यह प्राशा भी कैसे की जा सकती है, कि जाग्रदयस्था में विभिन्न घटासन्तानों में दिखाई वेने वाला मोदक एक ही होता है। अतः दृग् और दृश्य में सम्बन्ध को अनुपपत्ति से हग में दृश्य के अनन्त अनिर्वचनीय पदार्थों के काल्पनिक तादात्म्य का अभ्युपगम करने की अपेक्षा लाधष के कारण तत्तदृश्याकार दृफ की उत्पत्ति मानना ही युक्तिसङ्गत है। क्योंकि वेदान्तमत में तत्तदाकार हग के स्थान में तत्तदाकारवृत्ति की उत्पत्ति माननी पड़ती है, अत एव तत्तदाकार हा पौर तत्तदाकारत्ति की कल्पना में साम्य है। किन्तु वेदान्तमत में हग के साथ तत्तत्पदार्थ के काल्पनिक तादात्म्य की भी कल्पना करनी पड़ती है अतः उसमें गौरव स्पष्ट है।
"ष्टमेवेदं दृष्टिसृष्टिवादे, तथाहि नास्मिन् मते चैतन्यातिरिक्तपदार्थानामझातसत्त्व मस्ति, मिथ्यात्वस्य स्वप्नादिदृष्टान्तसिद्धत्वात् , तादृशस्यैव सत्त्वस्याङ्गीकारात् । एवं च 'घटादीनां यदा प्रतीतिस्तदा सत्त्वं नान्यदा, इति न दण्डादिजन्यत्वम्, किन्त्वज्ञानमात्रजन्यत्वं, स्वप्नवञ्च दण्डाधुपादानम् , अज्ञानदेवादिकं तु भासमानमेव तिष्ठति, अभावनिश्चयाभावाच्च पुत्राद्यभावकृतरोदनाद्यप्रसङ्गः, प्रत्यभिज्ञानमपि भ्रम एव, ततश्चाकाशादिक्रमेण सृष्टिः पश्चीकरणं ब्रह्माण्डाद्यत्पत्तिः इत्यादिकं मतान्तरे देवतारिग्रहन्यायसिद्धमपि नास्मिन् मते दृष्टिव्यतिरेकेण सिध्यति । अत एवार्थानां नानेकप्रमाणवेद्यत्यम् , किन्तु 'चक्षुपा पश्यामि' इत्यादि व्यवहारस्य स्वप्नतुल्यत्वात् सुखादिवत् केवलसाक्षिवेद्यत्वम् । 'कथं तर्हि घटादेपरोक्षत्वम् , वहन्यादेश्च परोक्षत्वम्, अज्ञानजन्यत्वस्य साक्षिण्यध्यस्तत्त्वस्य च तुल्यत्वात् ?' इति चेत् ? वहन्यादौ परोक्षवस्याप्यध्यस्तत्वाद् विशेषसिद्धेः । न च बौद्धमतप्रवेशः, अधिष्ठानस्य स्थायिवात् , अबाधितखाच्च । अज्ञानस्याप्यनादेः सकलदृष्टिदेतोरङ्गीकारात्' इति चेत् ?
[दृष्टिसृष्टिवादी वेदान्ती का पूर्वपक्ष ] उक्त कयन के प्रतिकार में वेदान्ती की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"तत्तदाकार दृग् को उत्पत्ति दृष्टिसृष्टिवाद में इष्ट ही है, क्योंकि इस मत में चैतन्य से अतिरिक्त पदार्थ की अज्ञात सत्ता नहीं है। इन पदार्थों में स्वप्नादि के दृष्टान्त मे मिथ्यात्व सिद्ध है। धयोंकि स्वप्नादि में दृश्यमाण पदार्थ की जैसी सत्ता होती है वैसी ही सत्ता जागृतिकाल में दृश्यमान पदार्थ में भी होती है । इस प्रकार इस मत में अब घटादि की प्रतीति होती है तभी घटादि की सत्ता होती है, अन्यकाल में नहीं होती। इसीलिये घटादि दण्डादिजन्य नहीं होता किन्तु अज्ञानमात्रजन्य होता है । घटादि के उत्पादनार्थ कुम्हार द्वारा जो दण्डादिग्रहण की बुद्धि होती है वह स्वप्न में होने वाले दहा विग्रहण