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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०१०
रहते हुये भो उक्त अनुसंधान द्वारा जब चैतन्यमात्र में अवस्थित हो जाता है तो चित्त की यह चैतन्यमात्र गोचर अवस्था को ही लयपूर्वक समाधि कही जाती है। क्योंकि चित्त की यह अवस्था स्थूल-सूक्ष्म तत्तत्कार्यों का तत्तस्कारणों में लय के अनुसंधान से सम्पन्न होती है। यह समाधि सुषुप्ति के समान सबोज होती है। क्योंकि इस समाधि में 'तत्त्वमसि' आवि वेदान्त के महावाक्यों का अर्थज्ञान न होने से विद्या और अधिद्या के कार्य का क्षय नहीं होता। अतः उक्त रीति से कारण में कार्यलय का चिन्तन होने पर भी कारण के स्वरूपतः बने रहने से सम्पूर्ण प्रपञ्च का पुनः प्रत्यक्ष दर्शन होता है । यह तो हुयी लयपूर्वक समाधि की बात ।।
किन्तु जो समाधि वाषपूर्वक होती है वह निर्बोज समाधि होती है क्योंकि वेदान्त के महान वाक्यार्थ ज्ञान से अविद्या की नियत्ति होकर साक्षिक्रम से जब उसके कार्यों की मिवत्ति हो जाती है तब अविद्यारूप हेतु का अभाव हो जाने से इस समाधि से समाहितव्यक्ति का पुनरुत्थान नहीं होता।
कहने का आशय यह है कि लयपूर्वक समाधि में चैतन्यात्मक मोक्ष में अनवाप्तत्वभ्रम की निवृत्ति हो जाने पर भी विद्यारूप बीज विद्यमान रहने से इस समाधि से मुमुक्ष का पुनरुत्थान होकर व्यवहार में उसकी प्रवृत्ति होती है। किन्तु बाधपूर्वक समाधि में अविद्यारूप बोज विद्यमान न रहसे से समाधिस्थ ममक्ष का इस समाधि से पुनरुत्थान होकर व्यवहार में प्रवार
नहीं होती। किन्तु पुनरुत्थान के विना ही पूर्व संस्कार के कारण ही उसी प्रकार प्रवृत्ति होती है जैसे कुलाल द्वारा हटवण्ड से चक को घूमाने पर उत्पन्न धेगास्यसंस्कार से बाद में दण्डप्रयोग के विना भी चक्र का भ्रमण होता है । अत: वेदान्तश्रवण से ही मोक्ष में अनवाप्तत्व भ्रम की निवृत्ति होने के कारण प्रथम प्रश्न निरवकाश है। दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि वेवान्तश्रवण करने पर भी अनवाप्तत्यभ्रम से युक्त वेदान्ती दूसरों को श्रवणादि साधनों का ओ उपवेश करता है वह प्रप्राप्तत्वभ्रम की निवृत्ति के लिये नहीं किन्तु शमदभादि की सम्पत्ति के लिये करता है। जिससे मुमुक्ष शम-दमादि से सम्पन्न होकर बाधपूर्वक समाधि में पहुँच सके । अतः श्रवणातिरिक्त साधनों के अनुष्ठान का उपदेश विफल न होने से वह वश्चक नहीं कहा जा सकता।"
___ अमावचोघातिरिक्ता विद्यानिवृत्यभाव उक्तोमयसमाधिविशेषस्यैवा सिद्धा, कल्पितानुलोमविलोमक्रमवभिवृत्तिमात्रस्य विशेषाऽहेतुत्वात , तादृशक्रमस्यैवानियभ्यत्वात् , विविक्तप्रत्ययस्वरूपमात्राद् विशेषे सर्वज्ञानचरमक्षण एव मुक्तिरिति बदन सौगत एव विजयेत ।
[समाधिय में विलक्षणता की असिद्धि ] किन्तु वेदान्तीओं का यह उत्तर व्यास्थाकार की दृष्टि में समीचीन नहीं है। उनका यह कहना है कि जब अज्ञानात्यन्ताभाव के बोध से अतिरिक्त अविद्यानिवृत्ति का अभाव है तो उक्त समाधिदय में इस प्रकार का लक्षण्य, कि लयपर्वक समाधि में अविद्यानिवत्ति नहीं होती ती और बाधपूर्वक समाधि में अविद्या की निवृत्ति होती है,-संगत नहीं हो सकता। कारण अनुलोम और विलोमक्रम को कल्पना से युक्त निवृत्तिमात्र वैलक्षण्य का हेतु नहीं हो सकता क्योंकि उस क्लम का ही कोई नियामक नहीं है।
यदि विविक्तप्रत्यय-अविद्यादि से अनुपहित चैतन्य को केवल स्वरूप से ही अविद्यादिउपहित चैतन्य से विलक्षण मान कर मोक्षस्वरूप माना जायगा तो 'सर्वज्ञ के ज्ञान का चरमक्षण ही मुक्ति