________________
[ शास्त्रवा० स्त०८ श्लो०३
पर ब्रह्मजिज्ञासु साधक 'तस्वमसि' इत्यादि महावाक्यों से प्रतिपाद्य विशुद्ध-निरुपाधि प्रत्यगभिन्नजीवात्मा से अभिन्न परमात्मा का साक्षात्कार करता है।
तत्र त्वंपदार्थः प्रसिद्ध एव संयोध्यो जीवः। तत्पदार्थश्चेश्वरः, स च 'विम्बचैतन्यम्' इति केचित्, 'विक्षेपशक्तिप्रधानाज्ञानप्रतिविम्बितं चैतन्यम्' इत्यन्ये, जीवनिष्ठावान विषयभूतं चैतन्यम्' इत्यपरे । उक्तार्थयोश्च तत-त्वम्पदयोरत्र सामानाधिकरण्यं न सिंहो देवदतः' इतिवद् गौणम् , मुख्ये संभवति तस्याऽन्याय्यस्यात् । नापि 'मनो ब्रह्म' इतियदुपासनार्थम् , श्रुतहान्यऽश्रुतकल्पनापत्तः । मुख्यत्वेऽपि न नीलोत्पलादिस्थानीयम् , गुण-गुणिभावाद्यसंभवात् , 'निगुणाऽस्थूल'-आदिवचनविशेधाच्च । नापि यः सर्पः स रज्जुः" इतिवद् बाधीयम् , उभयोश्चिद्रूपतया बाधाऽयोगात् । तस्मात् पदार्थयोः परस्परभेदव्यावर्तकतया विशेषण-विशेष्यभावप्रत्ययानन्तरं लक्षणया 'सोऽयं देवदतः इतिच विशुद्धसत्यमभिन्नाखण्डपरमात्मप्रतीतिः ।
[ 'तत्'-'त्वम्' पदों का वाच्यार्थ ] 'तत्त्वमसि' वाक्य में 'स्वम्' पद का अर्थ प्रसिद्ध है और वह है संबोध्य जीव । संबोध्य का अर्थ है युष्मतपदघटिलवाक्यजन्यबोधाश्रयरूप में वक्ता को अभिमत । अर्थात् , जिस व्यक्ति को बोध कराने के अभिप्राय से युष्मतपघटित याक्य का प्रयोग होता है वह संबोध्य होता है । यह संबोध्यता जीव में ही होती है क्योंकि जोव को बोध कराने के लिये ही युष्मत्पदघटित वाक्य का प्रयोग होता है । तथा उक्त वाक्य में 'तत्' पद का अर्थ है ईश्वर - ब्रह्मा। कुछ लोगों के अनुसार तत् पद से प्रतिपाद्य ईश्वर बिम्बचैतन्यरूप है। अन्य विद्वानों के मत में विक्षेपशक्ति प्रधान अज्ञान में प्रतिबिम्बित चैतन्य हो ईश्वर है । अपर विद्वानों के मत में जीवनिष्ठ अज्ञान का विषयभूत चैतन्य ही ईश्वर है । ईश्वर और जीव के बोधक क्रमशः 'तत्' और 'त्वम्' पद का तत्वमसि' इस महावाक्य में सामानाधिकरण्य है । सामानाधिकरण्य का अर्थ है परस्परान्वितार्थक होते हुये समान विभक्तिक होना। यह सामानाधिकरण्य 'तत्' पद और 'स्वम पद में है, क्योंकि उनका प्रयोग उनके अर्थों के परस्पर अन्वयबोध के लिये प्रयुक्त है और समान विभक्तिक भी है। किन्तु यह सामानाधिकरप्य सिहो देवदत्तः' इस वाक्य में सिंहपद और देवदत्त पद के सामानाधिकरण्य के समान गौण नहीं है, क्योंकि सिंहो देवदत्तः' वाक्य में सिंहपद सिंहसदृश का लक्षक है, किन्तु इस चालय में तत्' या 'त्वम्' सादृश्यविशिष्ट का लक्षक नहीं है। कारण, मुख्य अर्थ सम्भव रहने पर लाक्षणिक अर्थ का अभ्युपगम न्यायसंगत नहीं होता।
[ 'तच्चमसि' वाक्य में सामानाधिकरण्य मीमांसा ] एवं, 'मतो ब्रह्म' इस वाक्य में मन और ब्रह्म पद का सामानाधिकरय जिस प्रकार उपासनार्थ है इसप्रकार 'तत्त्वमसि' इस वाक्य में तत्-त्यम् पद का सामानाधिकरण्य उपासमार्य नहीं है । क्योंकि उपासनार्थ मानने पर श्रुतहानि और अथत कल्पना की अापत्ति होगी। वह इस प्रकार--जीव और ब्रह्म का ऐक्य 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म-'अयमात्मा ब्रह्म' इत्यादि वाक्यों से श्रुत है अतः उसकी हानि होगी। जीव और ब्रह्म में अश्रुतकल्पना यानी अन्य श्रुति से अश्रुत उपास्य-उपासकभाष की कल्पना की भी