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मुमुक्षा, अधिकार संपादन, संन्यास की अधिकारिविशेषणता, आतुरसंन्यास और उसका फल, तत्त्वज्ञान के बाद प्रारक इत्यादि विषयों पर पर विवेचन किया है।
४-५-६ कारिका से वेदान्तमत विरुद्ध उत्तर पक्ष का प्रारम्भ किया है-अविद्या सत् से पृथक न होने से भेदाध्यवसाय की आकस्मिकता की आपत्ति, अभेदरूप अविद्या से भेदप्रतीति में प्रमाण का अभाव और प्रमेयष्यतिरिक्त प्रमाणाभ्युपगम में अद्वैत भंग की आपत्ति प्रदर्शित की गयी है । ७वीं कारिका को व्याख्या में अद्वैतवाद की विस्तार से समालोचना प्रस्तुत है। बीच-बीच में वेदान्ती की ओर से की गई अवशिष्ट शंकाओं का भी समाशन किया गया है । महाविद्या अनुमान का विस्तार से निरूपण और उसका निराकरण बोधप्रद है । प्रपञ्च मिथ्यात्व साधक अनुमान का भी अन्त में निराकरण करके प्रपश्च में ब्रह्मवत् परमार्थसत्त्व की प्रतिष्ठा की गयी है।
आठवीं कारिका में अद्वैतवाद देशना का मूल आशय व्यक्त करते हुये कहा गया है कि वेद जिसका प्राचीनतम नाम जैनों के मत से श्रावकप्रज्ञप्ति है, उसमें शत्रु-मित्रादि में द्वेष और राग को निमल करके समभाव की प्रतिष्ठा के लिये केवल ब्रह्म की पारमार्थिक एकमात्र सत्ता की भावना के उपर भार दिया गया है, 'ब्रह्म' से अतिरिक्त वास्तव में कोई तत्त्व ही नहीं है-ऐसा उसका आशय नहीं है।
९वीं और १०वीं कारिका में क्रमशः उस गभित आशय की उपपत्ति और विपरीत कल्पना में बाधकापत्ति प्रदर्शित की गयी है। संसार और मोक्ष का द्वैत वास्तविक होने पर ही मुमुक्षुओं का तदर्थ यत्न सार्थक हो सकता है । यदि अद्वैत देशना समभाव साधना के लिये न होकर वास्तविक
प्रतिष्ठा के आशमवाली मानी जाय तो फिर मोक्षार्थी के सभी अनुष्ठान व्यर्थ हो जाने की आपत्ति अटल रहेगो। १०वीं का० की व्याख्या में विपरीत कल्पना में बाधक आपत्ति का सपूर्वपक्षउत्तरपक्ष से विस्तृत मीमांसा की गयी है। महोपाध्यायजी की तीक्ष्ण प्रज्ञा का हमें यहां परिचय मिल जाता है।
चरम तीर्थङ्कर भगवान महावीर देव, प० पू० कर्मसाहित्य निष्णात सिद्धान्त महोदधि स्व. आचार्यदेव श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज एवं न्यायविशारद उपविहारी गुरुदेव आचार्य भगवंत श्री विजयभुवन भानुसूरीश्वरजी महाराज की महतो कृपा इस ग्रन्थ के सम्पादन में साद्यन्त अन्वित रही है । एवं प० पू० स्व० गुरुदेव शान्तमूर्ति मुनिराजश्री धर्मघोषविजयजी महाराज के शिष्यावतंस गीताधरल गुरुदेव प० पू० पं० श्री जय घोषविजय जो महाराज ने दिलचस्पी से इस ग्रन्थ के सम्पादन कार्य में उदार सहायता प्रदान की है-किन शब्दों से इन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की आय-यह मैं नहीं जानता ।
अधिकृत मुमुक्षु वग इस ग्रन्थ के पटन-पाठन से सम्यग्दर्शन को विशुद्ध बना कर आत्मकल्याण के पथ पर अग्नसर बन यही शुभेच्छा।
सं० २०३८ अषाढ शुक्ला ११ पालनपुर (बनासकांठा)
-जयसुन्दर विजय