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[ शास्त्रवास • स्त० ८०१
स्फुरण होना सम्भव नहीं होता उस समय विषय स्मरण की उपपत्ति के लिये इस पक्ष में भी संस्कार मानना आवश्यक हैं । यह संस्कार वृत्तिविशेषरूप है। अतः इस मत का निष्कर्ष यह है कि अज्ञानादि के स्फुरण में साक्षी वृत्तिनिरपेक्ष होता है किन्तु उसके स्मरण का संस्कारात्मकवृत्ति द्वारा प्रयोजक होता है।
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अतः लाघव से जीव-ईश्वर उभय के साक्षित्व में श्रज्ञात हो उपाधि है । जैसा कि साक्षी का लक्षण प्रमाणिक वेदान्तीओं द्वारा कहा गया है कि साक्षी मोहसंक्रान्तिस्वरूप होता है । मोह का अर्थ अज्ञान होता है, न कि अन्तःकरण । अत एव उक्त कथन से अज्ञान में हो साक्षित्व की उपाधिता सिद्ध होती है ।
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अयमेव प्राज्ञ इति, आनन्दमय इति च गीयते, सुपुप्तेः प्रकर्षेणाऽतत्वात्, आनन्दप्रचुर - त्वाच्च न किञ्चिदवेदिषम्' इति 'सुखमस्वाप्सम्' इति परामर्शादि तत्रान्तःकरणाद्युपाधिविरहात्, जागरापेक्षयानन्दाभिव्यक्तेः । न त्वानन्दमयः शुद्धः, अनात्मत्वेन निर्णीताम्नमय प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय प्रयपाठात् । स्थूल देहसंबन्धात् 'अन्नमयः' इति, प्राणपञ्चक- कर्मेन्द्रियपञ्चकसंबम्धात् 'प्राणमयः' इति, मनः संबन्धात् 'मनोमयः' इति, बुद्धिज्ञानेन्द्रियसंबन्धाद् 'विज्ञानमयः ' इति च स एवानन्दमयोऽभिधीयते ।
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[ सुपुप्ति में प्राश और आनन्दमय अवस्था ]
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यह जीव हो सुषुप्ति में प्राज्ञ एवं आनन्दमय कहा जाता है, क्योंकि वह सुषुप्ति के समय 'प्रकर्षेण श्रज्ञः' अर्थात् सर्वविषयक अज्ञानवान् होता है और आनन्दप्रचुर होता है । सुषुप्तिकाल में जीव की प्रकर्षेण प्रज्ञता और आनन्दप्रचुरता को सिद्धि सो कर उठने पर उत्पन्न होनेशले 'न किश्विदवेदिषम्', 'सुखमस्वाप्सम्' इस प्रकार के स्मरण से होती है। उस समय अन्त करण आदि उपाधियां नहीं होती, अतः इस समय अनुभूत होनेवाला सुख वैषयिक सुख नहीं होता । तथा जागरण की अपेक्षा आनन्द की अभिव्यक्ति अधिक होती है । अतः इस समय जीव श्रानन्दप्रचुर होता है । यह आनन्दमय होते हुये भी शुद्ध नहीं होता क्योंकि उपनिषदों में उस का निर्देश अधिकतर अनात्मत्वेन निर्णीत अन्नमय प्रणामय- मनोमय और विज्ञानमय के साथ ही है । जीव ही स्थूल देह के सम्बन्ध से असमय और प्राणपञ्चक एवं कर्मेन्द्रियश्चक के सम्बन्ध से प्राणमय, मन के सम्बन्ध से मनोमय, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रिय के सम्बन्ध से विज्ञानमय, और विज्ञानमय हो जीव सुषुप्ति में सुक्ष्मावस्थापन बुद्धि ज्ञानेन्द्रिय से सम्बद्ध होकर आनन्दमय कहा जाता है ।
प्राणमयादिकोशत्रयस्यैव तैजसत्वव्यपदेशः । तत्रैव च विज्ञानमयो ज्ञानशक्त्या 'कर्ता' इत्युच्यते, मनोमय इच्छाशक्त्या कारणम्, प्राणमया क्रियाशक्त्या कार्यम् । एतेन परेषामिव नास्माकं प्रयत्नः कोशद्वयनिष्ठज्ञानेच्छाभ्यामनन्तरं प्राणक्रियाशक्त्यैव शरीरचेष्टासंभवात्, इष्टपदार्थज्ञानस्य 'इष्टं मे स्यात्' इतिीच्छायाश्वानुभववत् प्रयत्नानुभवाभावाच, 'अहं प्रयते' इति चेष्टा विषयत्वात् प्रतीतेः शब्देन च सद(न) भिधानात् । एतेन जीवनयोनिः प्रयत्नो निरस्तः ।