________________
स्या० क टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
इदमेव कोशवयं लिङ्गशरीरम् । तच्च द्विविधम्-समष्टि व्यष्टिभेदात् । तत्र समष्टिर्नाम व्यापकं स्त्रमिव मणिषु सर्वलिंगशरीरेषु स्थूलेषु चानुस्यूतं हिरण्यगर्माख्यं लिङ्गशरीरम् । तच्चोपासनाविशेषफलभूतं प्रभृतपुण्यस्य भोक्तुरुत्कर्ष गतस्यानन्दविशेषस्यायतनं, 'त ये शतं प्रजापतेरानन्दाः स एको ब्रमणः' इति श्रुतेः । एतस्य चोक्तविधानन्दभोगनियमे न स्थूलशरीरापेक्षा, ब्रह्माण्डाद् बहिपि भोगश्रवणात । एतदुपासकानां चोक्तविधसायुज्यं गताना दिराडादिसृष्टिव्यापारवर्ज तादृशमेव भोगादि ।
[प्राणमयादि तीन कोशों की कार्यप्रक्रिया ] जीच की ये पांच अवस्थाएँ चैतन्य के स्वरूप की प्राच्छादक होने के कारण कोश शब्द से व्यय होती हैं । इस में प्रापम नमामय और विज्ञानमय इन तीन कोश को तैजस कहा जाता हैइस तेजस कोश का घटक विज्ञानमय कोश ज्ञानशवित से कर्ता, मनोमय कोश इच्छाशक्ति से करण और प्राणमय कोश क्रिया-शक्ति से कार्य कारण में अभेद समझकर कार्य कहा जाता है । इस निरूपण से यह स्पष्ट है कि नैयायिकादि के समान वेवान्ती को प्रयत्न मान्य नहीं है । क्योंकि शरीर की चेष्टा जो न्यायमत से प्रयत्नसाध्य मानी जाती है-वह वेदान्तमत में विज्ञानमय और मनोमय कोश में क्रमशः ज्ञान और इच्छा उत्पन्न होने के बाद प्राण को क्रियाशक्ति से ही सम्पन्न हो जाती है। ज्ञान और इच्छा का अभ्युपगम तो इष्टपदार्थ के ज्ञान और इष्टप्राप्ति की इच्छा के अनुभव से सिद्ध है; किन्तु प्रयत्न की सिद्धि अनुभव से नहीं होती क्योंकि प्रयत्न का अनुभव असिद्ध है और 'अहं प्रयते' यह प्रतीति प्रयत्नविषयक न होकर चेष्टाविषयक है क्योंकि वेदान्तमत में प्रयत्न वाद से भी चेष्टा का ही अभिधान होता है। चेष्टाजनक प्रयत्न का निषेध करने से जीवनयोनि =जीवनादृष्ट मूलक प्रयत्न भी निरस्त हो जाता है क्योंकि उस प्रयत्न का नाडोस्पन्दनादि कार्य प्राणमय कोश की सहाकिया शक्ति से ही सम्पन्न हो जाता है।
[ समष्टि लिंग और उपासना का फल ] यह कोशत्रय हो लिङ्ग शम्व से कहा जाता है-इस के दो भेद होते हैं-समष्टि और व्यष्टि । उन में समष्टि का अर्थ है व्यापक, जो मणिों में सूत्र के समान सम्पूर्ण लिङ्ग शरीरों में और स्थल शरोरों में अनुस्यूत होता है, उस की संज्ञा 'हिरण्यगर्भ' होती है और वह ब्रह्मा का लिंगशरीर होता है । यह उपासनाविशेष के फलस्वरूप प्रभूत पुण्यशाली भोक्ता के उत्कृष्ट मानन्दविशेष को प्रायतनरूप में प्राप्त होता है। क्योंकि अति का उद्घोष है कि प्रजापति का शतगुणित मानन्द ब्रह्माहिरण्यगर्भ का एक प्रानन्द होता है ! यही आनन्द हिरण्यगर्भ की उपासना का परिपाक होने पर उपासक को ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के हिरण्यगर्भनामक समलिङ्गशरीर द्वारा प्राप्त होता है । इस उक्त आनन्दविशेष के भोग का सम्पादन स्थूल शरीर की अपेक्षा नहीं होता, क्योंकि यह भोग ब्रहारड के बाहर भी होता है जहाँ स्थलशरीर की पहुँच नहीं। हिरण्यगर्भ के उपासक जो ब्रह्मलोक में के हिरण्यगर्भ शरीर को उत्कृष्ट आनन्दविशेष के भोग के साधन रूप में प्राप्तिरूप सायुज्य से सम्पन्न होते हैं उनमें विराट आदि को सृष्टि के सामर्थ्य से अतिरिक्त आनन्द भोग प्रादि सब कुछ ब्रह्मा के समान ही उपलब्ध होता है ।