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[ शास्त्रवार्ता० स्त०८लो. १०
(=संशय)-श्रद्धा-ति-अश्रद्धा-प्रति-लज्जा-बुद्धि-भय' ये सब मन ही है, वह उक्त श्रुति में मनः पद को भावमनस् परक मानने से ही उपपन्न होता है। अतः उससे यह निस्कर्ष निकालना कि'कामादि अन्तःकरण के धर्म है आत्मा के नहीं'-उचित नहीं है। क्योंकि उक्तधर्म भावमनःस्वरूप होमे से एवं भाव मन आत्मपरिणामविशेष स्वरूप होने से आरमाधित है अतः उक्त श्रुति उन धों को आस्मनिष्ठ मानने से प्रतिकल नहीं है । अन्य विद्वानों का कहना है कि उक्त श्रुति में मनस् पद 'मनःकारणक' में लाक्षणिक है अतः उक्त श्रुति से यही सिद्ध होता है कि काम संकल्पादि धर्म मनःकारणक यानी मनोगन्य हैं न कि यह सिद्ध होता है कि वे धर्म मनोनिष्ठ हैं प्रात्मनिष्ठ नहीं है।'
अयादतश्रुत्यनुरोधादनाशेऽप्य विद्याया बाधितत्वेन तस्या अताविकत्वादद्वैततपवाव्याकोप इति चेत् । न, सदा तस्या बाधाऽविषयत्वेन चाधितत्वाऽयोगात् । प्रनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं चाविद्यायामिवाविधानिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं ब्रह्मण्ययि तुल्यम् , अन्यथा तु तत्तादात्म्यापश्या संसारितापतिः। एतेन 'प्राक् पश्चात् वा घटादेः 'नास्ति' इति प्रतीतेत्यन्ताभावेनैवोपपचौ प्रागभावे से वा मानामावा, असत्वं चात्यन्ताभावादेव' इति निरस्तम्, अनुत्पन्नाप्रच्युताया अविद्याया अत्यन्तामावोपगमे ब्रह्मणोऽपि तत्प्रसङ्गस्य दुनिवारत्वात् , प्रागभाव-ध्वंसापलापे प्राक्-पश्चादिति प्रयोगस्यैशनुपपत्ता, प्रतियोगिना पुनरुत्पत्ति-पुनरुन्मजनादिप्रसङ्गाश्च ।
___ यदि यह कहा जाय कि-'अद्वैत श्रुति के अनुरोध से मोक्ष बशा में अविद्या का यद्यपि नास नहीं होगा किन्तु बाधित होने से यह असात्त्विक हो जाती है अतः प्रतितत्त्व का व्याघात नहीं हो सकता"- "-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मोक्षदशा में अविद्या बायका विषय नहीं होती है अतः उस का बाधित होना युक्तिसङ्गत नहीं है।
यदि 'ब्रह्मनिष्ठप्रत्यन्ताभाव का प्रतियोगी होने से अचिया को बाधित' कहा जायगा तो प्रविद्यानिष्ठात्यन्ताभाव का प्रतियोगी होने से ब्रह्म में भी बाधितत्व की प्रसक्ति होगी।
यदि अविशा में ब्रह्म का अत्यन्ताभाव न माना जायगा तो ब्रह्म में विद्यातादात्म्य को आपत्ति होने से संसारिता को प्रापसि होगी।
वेदान्ती की ओर से यदि यह कहा जाय कि-"घटादि की उत्पत्ति के पूर्व तथा घटादि के बाद जो 'घटो नास्ति' यह प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति घटात्यन्ताभाव से हो जाती है अतः प्रागभाव ओर ध्वंस में कोई प्रमाण नहीं है। उक्त समयों में घटादि का प्रागभाव या ध्वंस न मानने पर भी जो घटादि का असस्थ होता है वह उन समयों में उसके अत्यन्ताभाव होने से ही होता है। इसी प्रकार अविद्या का प्रागभाव एवं ध्वंस है ही नहीं, और असरव इसके अत्यन्ताभाव से युक्त है"-तो यह कथन भी निरस्त प्रायः है क्योंकि जन्म और बिनाश से रहित होने पर भी अविद्या का यदि प्रत्यन्ताभाव माना जायगा तो ब्रह्म के भी प्रत्यन्ताभाष के प्रसङ्गका वारण न हो सकेगा।
दूसरी बात यह है कि यदि प्रागभाष एकां ध्वंस का अपलाप किया जायगा तो 'पूर्व' और 'पश्चात्' का प्रयोग भी उपपन्न न हो सकेगा क्योंकि प्रागभाव और ध्वंस मानने पर ही तत् के प्राग