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स्याक० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[मुक्ति में प्रपञ्च की सूक्ष्मरूप से सत्ता की आपति] यदि यह कहा जाय कि -"बाधपूर्वक समाधि में भी कारणक्रम से वाधरूपनिवृत्ति होने पर कार्यक्रम से लय होता है अतः निरुद्धवृत्तिक चित्त के परिणामरूप प्रात्मदर्शन का अविद्या में लय मानना अप नहीं हो सकता। कहने का प्राशय यह है कि विद्यादि कारणों का बाध. अविद्यादि के ध्वंसरूप न होकर अविद्यादि के अत्यन्ताभाव के बोधरूप है। अत: इस बोध के हो जाने पर भी अविद्यादि का ध्वंस न होने से कारण में कार्य का लय हो सकता है। अतः बाधपूर्वक समाधि में भी अविद्या में उक्तआत्मदर्शन का लय में सम्भव है और यह कार्यक्रम से होने वाला लय बाधक्कम में अर्थतः सिद्ध होता है । अर्थात जिस कारण के अत्यन्ताभाव के बोध के बाद जिस कार्य के प्रत्यन्ताभाव का बोध होता है उस कार्य का उस कारण में लय अर्थत: गृहीत हो जाता है। इसलिये 'बाधपूर्वक समाधि में आत्मदर्शन का अपनी प्रकृति में लय, के हेतु की अनुपपत्ति नहीं है-"
तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अविद्याध्वंसत्व को ही तत्त्वज्ञान का जन्यतावच्छेदक मानना उचित है। क्योंकि यदि अत्यन्तामाष बोधरूप धाध से हो ध्वंस का अपलाप किया जायगा तो यह भी कहा जा सकता है कि घटपशविरूप प्रपञ्च का भी ध्वंस नहीं होता किन्तु सूभरूप से स्वरूपावस्यान होता है । फलतः मुक्ति में भी प्रपञ्च का सूक्ष्मरूप से अनुवर्तन प्रसात होगा।
[ वेदान्ती को जैन मत में प्रवेश की आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-"सूक्ष्मता कारणरूप ही है अन्य नहीं है अत: मुक्ति में प्रपञ्च के कारणस्वरूप का अनुवर्तन होने पर भी कार्यस्वरूप के अनुवर्तन का प्रसङ्ग नहीं हो सकता"- तो इस कथन से यह निष्कर्ष निकलेगा कि प्रपञ्च का कारण अविद्या मोक्षकाल में स्वरूपतः नहीं नष्ट होती किन्तु कारणरूप से ही नष्ट होती है। इसके फलस्वरूप निवृत्ति-अनिवृत्ति उभयात्मकवस्तु का अस्तित्व प्रमाणित होगा। इसी प्रकार ब्रह्म भी साक्षित्वादिरूप से मुक्ति में नष्ट होता है और ब्रह्मरूप से अनिष्ट रहता है इसप्रकार नष्टानष्ट उभयात्मक वस्तु सिद्ध होगी और इन सब के परिणामस्वरूप यह तथ्य प्राप्त होगा कि-औदयिकादि भाव यानो कर्म के उदय-क्षयोपशमादि से निष्पन्न भावों से निर्मितसंसारीरूप से निवत्तमान और सिद्धत्वरूप से उत्पद्यमान तथा द्रव्यरूप से वोनों दशा में अनुगत आत्मद्रव्य हो मुक्ति में अवस्थित होता है। एवं उस अवस्था में संसार के उत्पादक औयिकादि भाव के आलम्बनरूप से कम निवृत्त हो जाने पर अकालिक अवस्थाओं में द्रव्यरूप से अनुगत अात्मनध्य हो कर्मपृथाभावरूप पर्याय से उत्पन्न होता है । इस प्रकार वेदान्तमत में इच्छा न होने पर भी प्रार्हसमत का हो अभ्युपगम सिद्ध होता है ।
[ज्ञान सुखादि आत्मा के धर्म है । इससे अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि मुक्ति दशा में भी अविद्या का माश नहीं होगा तो उस दशा में अद्वैत का व्याघात अवश्य होगा। तो जब मुक्तिक्शा में असव्याघात होने वाला ही है तो संसार बशा में आरमा में होने वाली ज्ञान-सुखादि को साक्षात् प्रतीतियों के सम्बन्ध में यह व्यर्थ कल्पना क्यों की जाय कि 'ये प्रतीतियां अनिर्वचनीय ज्ञानादिको विषय करती है?. क्योंकि, ज्ञानसुखावि अन्तःकरण के ही धर्म हैं, परम्परासम्बन्धरूप दोष से आत्मा में उनका भ्रम होता है ?' कामः संकल्प:' इत्यादि श्रति में जो यह बताया गया है कि काम-संकल्प-विचिकित्सा