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[ शास्त्रवा० स्त० ८ श्लो०१०
क्योंकि वह तभी सम्भव हो सकता है जब वित्तपरिणामों की नियत्ति हो कर चित्त का स्वरूप से अवस्थान हो । किन्तु मोक्षदशा में वित्त का अवस्थान ही नहीं होता।
अथाविद्यापर्यन्तत्वाल्लयस्य न दोषा, लोयते तु सुषुप्ती, "तनिगृहितं न लीयते" इति गौडोक्तं तु निरोधे चित्तवृत्यभावो न लयकृतः, किन्तु निग्रहकृत इत्यभिप्रायेणेति चेत् ? अपमतमेतत्, लयस्य कार्यक्रमेण निवृत्तिरूपत्वात् , अत्र तु कारणक्रमेण निवृत्तेरभिधानात् । अधात्र कारणक्रमेण बाधरूपनिवृपयुत्तरं कार्यक्रमेण लय इति नापमतम् । स च बाधक्रमेणार्थसिद्ध इति न हेत्वनुपपचिरिति चेतन, अविद्याध्वंसत्वस्यैव तत्वज्ञानजन्यतावच्छेदकत्वौचित्याव । बाधेनैव वंसापलापे घटादेरपि प्रपश्चस्य ध्वंसाभावे सूक्ष्मतया स्वरूपेणावस्थानस्य सुवचत्वे मुक्तावप्पनुवृत्तिप्रसङ्गः । 'कारणरूपमेव सूक्ष्मता, नान्येति चेत ? तहिं प्रपञ्चकारणमविद्या स्वरूपतो न नष्टा, कार्यात्मना तु नष्टेति निवृत्पऽनिवृत्यास्मकतया वस्त्वस्तु । एवं भ्रमापि साक्षित्वादिरूपेण मुक्ती नष्टमनष्टं च ब्रह्मरूपेण वस्त्वस्तु । तथा च 'औदयिकादिभाधानप्पलसंसारितया निवर्तमान सिद्धत्वनोत्पधमानं द्रव्यतयाऽनुगतमात्मद्रव्यमेव मुक्तावतिष्ठते, कर्म च संसारनियन्धनोदयादिभावालम्बनतया निवर्तमान द्रव्यतयाऽनुगतमेव ततः पृथगभावपर्यायेणोत्पद्यते' इत्याह तमतमेवाकामेनाप्युपगन्तव्यम् । अनष्टायां खल्वविद्यायां मुक्तावप्यद्वैतस्यावश्यव्याघाते निमर्थ संसारदशायामात्मनि साक्षाज्ञानसुखादिप्रतीतीनामनिर्वचनीयज्ञानाबालम्बनतयाऽन्तःकरणधर्माणामेव ज्ञान-सुखादीनां परम्परासंबन्धदोषेण अमत्वं कल्पनीयम् ? । “कामः, संकल्पः, विचिकित्सा, श्रद्धा, धृतिः, अश्रद्धा, अधृतिः, ही, धीः, भीः एतत् सर्व मन एव" इति श्रुतेभविमनोऽभिप्रायेणैव घटमानत्वात् । 'मनःपदस्य मनाकरणके लक्षणयैतदुपपत्तिः" इत्यन्ये ।
[लय कारणक्रम से नितिस्वरूप नहीं है ) यदि यह कहा जाय कि-'मोक्षावस्था में चित्त नहीं रहता, अतः निरुद्धवत्तिक चित्त के परिणामरूप प्रात्मवर्शन का चित्त में लय भले न हो, किन्तु अविद्या में लय हो सकता है क्योंकि सभी लय अविद्यापर्यन्त होता है-प्रतः इसमें कोई दोष नहीं हो सकता। क्योंकि, सुषुप्ति में चित्तान्त का अविद्या में लय होने से यह कोई नवीन कल्पना नहीं है । ऐसा मानने में गौडपाव के इस कथन का कि-चित्त का निग्रह होता है, लय नहीं होता'-कोई विरोध नहीं हो सकता। क्योंकि उन के उक्त कथन का भी अभिप्राय यह है कि विरोधसमाधि में जो चित्तवृत्ति का अभाव होता है वह लयजन्य नहीं होता किन्तु निग्रहणन्य होता है।"
किन्तु व्याख्याकार यशोविजयजी का कहना है कि बाधापूर्वक समाधि में चित्त का लय अविद्या में होता है यह मत अपसिद्धान्त है। क्योंकि कार्यक्रम से जो निवत्ति होती है उसी को लय कहा जाता है। किन्तु बाधपूर्वक समाधि में कार्यक्रम से निवृत्ति न बताकर कारणपूर्वक निवृत्ति बतायी गयी है।