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स्या का टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
ममापि पनाहगति दिनदनित्तरायपस्य सह निरोधसंस्कार: स्वप्रकृती लये स्वरूपप्रतिष्ठः पुरुषो भवतीति चेत् ? न, तस्य प्रकृतिलयहेत्वभावात् , स्वात्मिकाया अविद्यानिवृत्तेः स्वलयेऽहेतुत्वात् , लयस्य शनिवंचनाच्च । तथाहि-लया कि धंसो या, बाधो वा, कार्यरूपपरित्यागेन कारणरूपेणावस्थानं वा १ । नायः, मिथ्याभूतस्यात्यन्तामावस्यैवोपगमात् । न द्वितीयः, बोधानुपरमेनाऽनिमोक्षापातात् । नापि तृतीयः, चित्ताभावात् ।
[अज्ञानात्यन्ताभावयोध का क्या स्वरूप है ?] दूसरी बात यह है कि अज्ञान के अत्यन्ताभाव के बोध को हो अज्ञाननिवृत्ति बताया गया है, किन्तु वह बोध यदि अधिष्ठानस्वरूप होगा तो वह बोध तत्त्वज्ञानजन्य होने के कारण अधिष्ठान में भी तत्त्वज्ञानजन्यत्व को आपत्ति होगी। यदि वह बोध अधिष्ठान से अतिरिक्त होगा तो अद्वैतवाबके भङ्गापत्ति का परिहार करने के लिये उसको भी निवृत्ति माननी होगी। फिर उस निवृत्ति के रह जाने पर उससे भी अद्वैतभङ्गापत्ति का उत्थान हो सकता है, अत: उसकी भी निवृत्ति माननी होगी। इस प्रकार निवृत्ति परम्परा को कल्पना आवश्यक होने से दुनिवार अनयस्था प्रसक्त होगी ।
यदि यह कहा जाय कि-सम्प्रज्ञातसमाधि में प्रात्माकारवृत्ति के बाद जब निरोधसमाधि-- प्रसम्प्रज्ञात समाधि होती है तब प्रास्माकारवत्ति के बिना हो प्रात्मानुभव होता है । उस समय चित्त निरुद्धवृत्तिक होने से यद्यपि दर्शन का हेतु नहीं होता फिर भी आत्मा के स्वतःसिद्ध दर्शन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यह दर्शन ठीक उसी प्रकार होता है जैसे जल अथवा तण्डुलादि से पूर्ण घट जलादि से रिक्त करने पर आकाश से पूर्ण होता है। यह दर्शन हो अज्ञान का बोध है । इस दर्शन का भी निरोधसमाधिजन्य संस्कारों के साथ अपनी प्रकृति में लय होता है क्योंकि वह भी चित्तपरिणाम के प्रवाह में पड़ा हुआ निर्वत्तिकचित्त का परिणामरूप ही होता है। इस प्रकार आत्मदर्शन का भी लय हो जाने से पुरुष अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है
तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अपनो प्रकृति में आत्मदर्शन के लय का कोई हेतु नहीं है । यदि यह कहा जाय कि 'अविद्यानिवृत्ति हो उसके लय का हेतु है ' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अविद्यानिवृत्ति को उसका हेतु कहना स्व को स्वलय का हेतु कले समान हो जाता है।
। लय की व्याख्या वेदान्ती के लिये दुःशक्य । दूसरी बात यह है कि लय का निर्वचन भी नहीं हो सकता क्योंकि उसे १. ध्वंसरूप, २. बाघरूप अथवा ३. कार्यरूपरित्यागपूर्वककारणरूपावस्थानात्मक नहीं माना जा सकता। लय को १. ध्वंसस्वरूप न मानने का कारण यह है कि ध्वंस के स्थान में मिथ्याभूत वस्तु के अत्यन्तभाव का उपगम कर उसे अस्वीकृत किया जा चुका है। २. बाघ को लयस्वरूप न मानने का कारण यह है कि बाध को बाध्यमानवस्तु के अत्यन्ताभाव का बोधरूप बताया जा चुका है । अतः बोध की निवृत्ति न होने पर मोक्षामान की प्रसक्ति होगी क्योंकि बोधात्मक ही अविद्या का कार्य अवशिष्ट रह जायेगा । यदि उसकी निकृति होगी तो अज्ञानबाध तद्रूप होने से अज्ञानबाघ की निति प्रसक्त होने के कारण पुनः मोक्षाभाव की प्रसक्ति होगी। ३. लय का तृतीयस्वरूप भी नहीं माना जा सकता