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[ शास्त्रवाता० स्त० ८ श्लो० १०
अपिच, एवमभ्रान्तपुरुषकृतिमाध्यत्वरूपं पुरुषार्थत्वमपि मोक्षस्यानुपपन्नमेव । न चाभिलपितत्वमात्र तत्, बलवदनिष्ठाननुवन्धित्वभ्रमजन्येच्छाविषये विषभक्षणेऽतिव्याप्तेः, अभ्रान्तेच्छाविषयत्वं तु न मुक्तावपि, अनवाप्तत्वभ्रमजन्येच्छाविषयतादेव न चाभिलषितत्वमात्रसम्वेऽपि चन्द्रोदये पुरुषार्थत्वं व्यवहियते, लक्ष्शीकृतं च तादृशव्यवहारालम्बनमेव तदिति । एसेन 'नानवाप्तत्वभ्रमजन्या मोक्षेच्छा, अवामत्वज्ञानस्येच्छाप्रतिवन्धकस्य दोषेण प्रतिबन्धादेव तदुदयात्' इत्युक्तावपि न क्षतिः, वस्तुतोऽविवेके सत्यनवाप्तत्वज्ञानम् , तस्मिंश्च सति न मुमुना, इति न यावदधिकारसंपत्तिरेव वेदान्तिनः ।
[वेदान्तमत में मोक्ष पुरुषार्थ की अनुपपत्ति ] यह भी ज्ञातव्य है कि वेदान्तमत में मोक्ष में पुरुषार्थत्व भी अनुपपन्न ही रहता है क्योंकि पुरुषार्थत्व भ्रमाऽजन्यपुरुषकृतिसाध्यतारूप है जो मोक्ष के नित्य प्राप्त होने से सम्भव नहीं है । अभिलषितत्वमात्र को पुरुषार्थत्व नहीं कहा जा सकता । क्योंकि बलयत् अनिष्ट के अजनकत्व का भ्रम होने पर विषभक्षण भी अभिलषित हो जाता है, अतः उसमें पुरुषार्थत्व की प्रतिव्याप्ति होगी। यदि भ्रमाजन्येच्छाविषयत्व को पुरुषार्थत्व माना जायगा तो वह भी मुषित में सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि मुक्ति की इच्छा वेदातमत में मोक्ष में अप्राप्तवभ्रम से ही उत्पन्न होती है। दूसरी बात यह है कि अभिलषितत्व मात्र 'चन्द्रोदय में भी होता है किन्तु उसमें पुरुषार्थत्व का व्यवहार नहीं होता और लक्ष्य वही है जो पुरषार्थत्वव्यवहार का विषय है। अतः अभिलषितत्व को पुरुषार्थत्व मानने पर चन्द्रोदय में उसकी प्रतिध्याप्ति अनिवार्य है।
प्रमाजन्येच्छाविषयत्व को पुरुषार्थत्व मानने पर मोक्ष में प्रसक्त अव्याग्ति का परिहार करने के लिये यदि यह कहा जाय कि 'मोक्ष को इच्छा अनवाप्तत्वभ्रम से नहीं होती किन्तु इच्छाप्रतिबन्धक प्राप्तत्व ज्ञान का दोषवशप्रतिबन्ध होने से प्राप्तत्वज्ञानाभाव से ही मोक्षरछा का उदय होता है तो यह कथन उक्त दोषप्रदर्शन में क्षतिकारक नहीं है, क्योंकि पुरषार्थव्यवहाराविषयीभूत चन्द्रोदय में पुरुषार्थत्व की प्रतिव्याप्ति तस्वस्थ रहती है। वस्तुस्थिति यह है कि प्रनवाप्तत्वभ्रम से मोक्षच्छा का समर्थन ही नहीं हो सकता क्योंकि अनवापरावभ्रम अविवेक रहने पर ही होगा और अविवेक रहने पर मोक्षच्छा हो नहीं सकती। अतः मोक्ष को नित्य चतन्यात्मक मानने पर उसका सम्भव न होने से वेदान्ती वेदान्ताध्ययन के पूर्वोक्त यावदधिकारों से सम्पन्न नहीं हो सकेगा क्योंकि यावदाधिकारों में मुमुक्षा का भी संनिवेश है-और मुमुक्षा उक्तरोति से सम्भव नहीं है।
किञ्च, अज्ञानात्यन्ताभाययोधोऽप्यज्ञाननिचिरूपो यद्यधिष्ठानात्मकः, तदा तस्य तत्वज्ञानजन्यत्वादधिष्ठानस्यापि तञ्जन्यत्वं प्राप्तम् । यदि चातिरिक्तिः, तदा तम्भिवृत्तिनिवृत्यादिपरम्पराप्रसङ्गो दुनिरः । अथ संप्रज्ञातसमाधिस्थलीयात्माकारवृत्युत्तरं निरोधसमाधिना वृत्तिं विनैवात्मानुभव, तदा चित्तस्य निरुद्धवृत्तिकत्वेन दर्शनाऽहेतुत्वेऽपि स्वतः सिद्धस्यास्मदर्शनस्य दुर्निवारत्वाजल-तन्दुलादिपूर्णतापगमेऽपि घटस्य वियत्पूर्णतावत् स एवाशानवाधरूपः,