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स्था० का ० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[ पृथ्वी में गन्धवचा की तरह में ही रूम ]
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि, जैसे समवाय से गन्ध के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से पृथ्वी कारण होती है ओर पृथ्वी में विद्यमान गन्धसमवायिकारणता का पृथ्वीत्व अवच्छेदक होता है, कहते भी हैं कि पृथ्व्यां पृग्योत्वावच्छेदेन गन्धसमवायिकारणता है, अत एव पृथ्वी में हो गन्ध होता है किन्तु गन्धाश्रय पृथ्वी के सम्बन्ध से जल आदि में वास्तव गन्ध नहीं, वहां औपाधिक गन्धवत्त्व का व्यवहार होता है उसी प्रकार सत्ता के आश्रयता का चित्व अवच्छेदक होता है अत एव चित् ही सत् होता है, जगत का सम्पूर्ण व्यवहार चित् के अधीन होता है । जगत् की समस्त वस्तुओं के साथ सताश्रय चित् का सम्बन्ध होने से जगत् सत्व व्यवहार होता है। इस प्रकार जगत में, उसके afteriage चित् को सत्ता से ही सरषव्यवहार की उपपत्ति हो जाती है, अतः जगत में स्वतन्त्र ससा मानने में कोई युक्ति नहीं है ।
अपि च पराभिमतात्मविशेषादर्शनान्यय- व्यतिरेकानुविधावित्दात् प्रपञ्चप्रतिभासस्य भ्रमत्वम् । न च तदन्वयव्यतिरेकयो दद्दतादात्म्यप्रतिभा सेनाऽन्यथासिद्धिः, विनिगमकाभावात्, मुक्तौ देवतादात्म्याऽप्रतिभासवत् प्रपञ्चाऽप्रतिभासनाद, संसारदशायां देहतादात्म्यप्रतिभासवत् प्रपश्च प्रतिभासनाच्च । वस्तुत आत्म विशेषाऽदशेनजन्यतावच्छेदकं नात्म- देहतादात्म्यभ्रमत्वम्, गौरवात्, किन्तु दृश्यदर्शनस्त्रमेव, लाघवात् । अत एव ब्रह्मणः सकलप्रपञ्चविषयत्वं संयोगादिस म्वन्धाऽनिरूपणात् स्वरूपस्य च संबन्धत्वाभावात् काल्पनिकज्ञेयतादात्म्याश्रयणेनोपपद्यत इति युक्तम् ।
[ आत्मतच्च के अदर्शन से प्रपञ्च का अपज्ञान ]
यह भी ज्ञातव्य है - जगत् का जो प्रतिभास होता है । वह, पर ( वेदान्ती) को अभिमत जो आत्मा है, उस के अदर्शन के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान करता है । अर्थात् जब तक आत्मा का अज्ञान रहता है तब तक जगत् की प्रतीति होती है और जब श्रात्मा का तत्त्वदर्शन होने पर उस अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है तब जगत् की प्रतीति नहीं होती । अत एव जगत् की प्रतीति उसी प्रकार भ्रम रूप है जैसे रज्जु के वास्तव स्वरूप के अदर्शन के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान करने वाला रज्जु में सर्पज्ञान भ्रम होता है । यदि यह कहा जाय कि - 'आत्मा के अदर्शन का जो अन्वयव्यतिरेक है वह आत्मा में देहतावात्म्य के प्रतिभास का निमित्त होता है । अत एव वह प्रपन की प्रीतोति के साधन में अन्यथा सिद्ध है । तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह क्या देहात्मतात्म्य के प्रतिभास का साधक है ? या प्रश्वप्रतीति का साधक है ? इसमें कोई विनिगमक नहीं है, क्योंकि मोक्ष होने पर जैसे देहात्मतादात्म्य के प्रतिभास का अभाव होता है उसी प्रकार प्रवश्वप्रतिभास का भी अभाव होता है । एवं संसार दशा में जैसे देहात्म-सादात्म्य का प्रतिभास होता है उसी प्रकार प्रपश्व का भी प्रतिभास होता है । अतः देहात्मतादात्म्य प्रतिभास और प्रपश्व प्रतिभास दोनों में श्रात्मतत्त्व के अज्ञान का अन्वयव्यतिरेक समान होने से यह कहना असङ्गत है कि वह देहात्मतादात्म्यप्रतिभास का ही हेतु है - प्रपप्रतिभास का नहीं ।