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सिद्धि है अतः पटादि में उसका निषेध किया जा सकता हैं'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे कम्बुनीवादिमत्त्वरूप से घटाभेद सिद्ध होने के कारण कम्बुग्रीवादिमत्त्वावच्छिन्न में घटाभेद का निषेध नहीं होता, उसी प्रकार घटपटादि में सत्त्वरूप से परस्पराभेद सिद्ध होने से पट में घट के अभेद का निषेध नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'सत्त्यरूप से घर में घराभेद सिद्ध होने पर भी पटत्यविशिष्ट में घटामेव का निषेध हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भेद व्याप्यवृत्ति होने से कोई वस्तु एक हो वस्तु से भिन्न और अभिन्न नहीं हो मकती। एवं दूसरी बात यह है कि घटस्वपटत्या समर्म एफ ही सत् पदार्थ में कल्पित है, अतः जनमें विरोध न होने से एक धर्मावच्छिश्न में अन्य धर्मावच्छिन्न का भेद नहीं हो सकता। लोक में जो 'घटः पटो न' 'घट यह पट नहीं है इस प्रकार का व्यवहार होता है वह काल्पनिक है, इसलिये उससे अद्वैत को वास्तविकता का भङ्ग नहीं हो सकता।
[आकाश पुष्प के निषेध में मतान्तर की चर्चा ] इस संदर्भ में व्याख्याकार ने आकाश पुष्प निषेध के सम्बन्ध में एक अन्य मत की चर्चा की है जिसका प्राशय यह है कि किसी निमित्त विशेष से बुद्धिगत होने वाले आकाश पुष्पादि का 'आकाशपुष्पं नास्ति' इस रूप में बाह्यवेश में निषेध किया जाता है। जिसका तात्पर्य यह है कि आकाशपुष्पादि की केवल बौद्धिक सत्ता है, बाह्य सत्ता नहीं है । इस मत के उल्लेख से यह सूचित होता है कि प्रस्तुत विषय में घटपटादि के अभेद के निषेध को उस प्रकार भो उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि घटपमादिका घटक महानिरूप अमेत हिसी निमित्त विशेष से बुद्धिगत भी नहीं है। अतः अद्वैतवाद में भेदबद्धि नितान्त निष्प्रयोजन होने से निरवकाश है।
किञ्च एकस्य व्यात्मकस्याभावात् , भेदा-ऽभेदयोरेफतरस्य मिथ्यात्वनियमे मेदानामेव तत्वकल्पनमुचितम्, सर्पादिप्रतीती(तत्)दर्शनात् न तु वस्तुपात्रस्य । अपि च, गन्धसमवायिकारणतावच्छेदकं यथा पृथिवीत्वमेवेति तत्रैव गन्धः, तत्संबन्धादेव च जलादी गन्धवस्वव्यवहारः, तथा सत्वाश्रयतावच्छेदकमपि चिवमेवेति चिदेव सती तदधानत्वात् सर्वव्यवहारस्य, तत्संबन्धादेव च प्रपञ्चे सस्यव्यवहारः ।
(भेदाभेद में से मेद ही मिथ्या है) इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि, एक वस्तु द्वयात्मक-द्विरूप अर्थात् भिन्न अभिन्न नहीं हो सकती। इसलिये भेद और अमेव में किसी एक को मिथ्या मानना आवश्यक है। तब अभेद को मिथ्या मानने की अपेक्षा भेद को ही मिथ्या मानना उचित है, जैसे कि, रज्जु में प्रतीयमान होने पाले सर्प में रज्जुसत्ता से अतिरिक्तसता शून्यत्वरूप रज्जु का अभेद मिथ्या नहीं होता किन्तु रज्जुसत्ताऽतिरिक्तसत्ता रूप रज्जुभेद ही मिथ्या होता है, अत: रज्जु और सत्मिक वस्तुमात्र मिथ्या नहीं होता उसी प्रकार वस्तु में प्रतीत होने वाले भेदाभेव में भेद ही मिथ्या होता है-प्रमेव एवं अभिन्नरूप में प्रतीत होने वाली वस्तु यह सब मिभ्या नहीं होता। अतः वह अवेत वस्तु प्रामाणिक है, जिसमें भेदाभेद बुद्धियों का उदय होता है।