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के साधन में व्यभिचरित है। यदि यह कहा जाय कि- 'जैसे चक्षुष्मान बधिर में अनुपलब्ध शब्द श्रवणरूप अर्थ क्रिया से चक्षु में शब्दग्राहक इन्द्रिय का भेद सिद्ध होता है उसी प्रकार पाक और दाह के कारण भूत अग्नि में दाह और पाक के भेद की सिद्धि न होने पर भी जो अर्थक्रिया उस अग्नि से नहीं उपलब्ध होती उस अर्थ क्रिया के द्वारा उसमें भी भेवसिद्धि आवश्यक है।"-तो यह भी ठीक नहीं है, कारण कि अद्वैत सिद्धान्त में कोई कार्य एकत्र अदृष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि एकत्र अदृष्टता अन्यत्र इष्टता पर निर्भर है, अतः अमुक कारण से अमुक प्रक्रिया अदृष्ट है यह सिद्ध होने पर ही अमुक कारण में अमुक अर्थक्रिया के कारण का भेद सिद्ध होगा और उस भेद के सिद्ध होने पर ही अमुक कारण से अमुक अर्थक्रिया का प्रदर्शन सिद्ध होगा। अत: अदृष्ट अर्थक्रिया के भव से अर्थभेद को सिद्धि अद्वैतवाद में परस्पराश्रय (अन्योन्याश्रय नामक दोष से) ग्रस्त है।
[ 'घटः सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष से सन्मात्ररूपता की सिद्धि ] दूसरी बात यह है कि-'घटः-सन्' 'पट:-सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष प्रतीति से घटपटादि समस्त पदार्थ केवल सन्मात्र रूप सिद्ध हैं । अत एव उनमें मेदसिद्धि का कोई अवसर नहीं है। यधपि अद्वैतवाद में कालभेद न होने के कारण 'सोऽयम्' इस बार को बुक सभा नहीं है। इस सुद्धि में 'अयं न सः' इस प्रकार की भेद बुद्धि का बाध सम्भव न होने के कारण भेदसिद्धि का सम्भव प्रतीत होता है। तो भी भेदबुद्धि की निरवकाशता निदियाद है, क्योंकि निविकल्पक अर्थात् अप्रामाण्यसंशय से अनास्कन्वित 'घटः सन्' 'पटः सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष निश्चय से घट-पटावि पदार्थों का विधिरूप यानी सन्मात्रात्मकता सिद्ध है, अतः भेदबुद्धि से उसका बाध नहीं हो सकता और घटपटादि का सत् स्वरूप से अतिरिक्त स्वरूप द्वारा अभेद प्राप्त नहीं है, फलतः भवद्धि से उसका भी निषेध नहीं हो सकता, प्रतः भेवबुद्धि निष्प्रयोजन होने से निरवकाश है। यदि यह कहा जाय कि-'जसे प्रसिद्ध मी आकाशपुष्पादि का 'प्राकाशपुष्पं नास्ति' इसो प्रकार निषेध होता है उसी प्रकार सतस्वरूपता अतिरिक्त स्वरूप से घटपटादि के असिज अभेद का भी 'घटायभिन्नः पटादिः न' इस प्रकार निषेध हो सकता है । अतः भेदद्धि निष्प्रयोजन होने से निराश नहीं हो सकती।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'आकाश पुष्पं नास्ति' 'आकाशपुष्पं नास्ति', यह आकाश पुष्प का निषेध नहीं है, किन्तु 'आकाशे पुri नास्ति' इस प्रकार आकाश में पुष्प का निषेध है। अतः उक्त दृष्टान्त से घट-पटादि के असिद्ध अभेव के निषेध की उपपत्ति नहीं की जा सकती।
यदि यह कहा जाय कि-'घटाभिन्नः पटोन' इस निषेध को भी 'पटः न घटाभिन्नः' इस रूप में व्याख्या की जा सकती है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पुष्प अन्यत्र सिद्ध है अतः प्राकाश में उसका निषेध हो सकता है किन्तु घटाभेद कहीं ऐसे पदार्थ में सिद्ध नहीं है जिसका निषेष पट में किया जा सके।
[ घटाभेद किसी भी प्रकार सिद्ध न होने से निषेध अशक्य ] __ यदि यह कहा जाय कि-'घटाभेद घट में सिद्ध है अतः पट में उसका निषेध हो सकता हैतो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'घटो घटः' इस प्रकार को बुद्धि न होने से घट में भी घटाभेद सिद्ध नहीं
विमत्त्यरूप से घटमें घटाभेद
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- जायक-'कम्यमानादिमामयट
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-'कम
दिमान घट