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अतः जब भेद भाव का रूप है तो उसकी भाव के हेतु से हो उत्पत्ति होगी। प्रतियोगी उसके लिये आवश्यक न होगा।
[ अर्थकिया प्रतियोगिनिरपेक्ष हो सकती है ] यदि यह कहा जाय कि-'अपेक्षा का अर्थ है अर्थ किया।' अतः उसके लिये प्रतियोगी अवश्य उपादेय होगा, क्योंकि भाय स्वेतरभिन्नरूप से ही अपनी अर्थ क्रिया का सम्पादक होता है। स्वेतरभिनता स्वेलरात्मक प्रतियोगी से ही सम्पन्न होती है ।' तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि प्रतियोगी के असंनिधान में भी अर्थक्रिया देखी जाती है। यदि यह कहा जाय कि-'प्रक्रिया का अर्थ है प्रतीति अतः भेदप्रतीति ज्ञात होते हुए प्रतियोगी से साध्य होने के कारण भेदस्वरूप की प्रतियोगीसापेक्षता निर्वाध सम्भव है"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे घटादिआत्मक प्रभाव का रूपादिकात्मकस्वरूप चक्षु आदि से ज्ञात होता है उसी प्रकार उसका भेदात्मक स्वरूप भी उन्हीं से ज्ञात हो सकता है। अतः प्रताति द्वारा भी भाव में प्रतियोगिसापेक्षस्वभावता नहीं हो सकती।
[ पुत्रत्व-पितृत्वादि भेद कल्पित हैं ] __ यदि यह शंका की जाय कि 'अगर वस्तुओं में विविधता नहीं है तो एक व्यक्ति में पितृत्व प्रावि कसे सम्भव होगा? एक ही व्यक्ति अपना ही पिता और पुत्र नहीं हो सकता' तो-इसका उत्तर यह है कि जैसे एक ही वस्तु में हुस्वत्व-वीर्घत्व कल्पित है उसी प्रकार एक ही व्यक्ति में पितृत्व-पुत्रत्यादि भी कल्पित है और कल्पित वस्तु के अनुरोध से अकल्पित वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। आशय यह है कि हस्वत्व और दीर्घत्व वास्तव न होकर कल्पित है, उसी प्रकार पितृत्व और पुत्रत्व को उपपत्ति परस्परापेक्ष होने से कल्पित है। अतः उसके अनुरोध से वास्तव विविधता की कल्पना नहीं हो सकती किन्तु एक ही व्यक्ति में अज्ञानवश वैविध्य को कल्पना से वस्तुष्टया उसी व्यक्ति में पितृत्वपुत्रत्वादि का व्यवहार होता है।
स्यान्पतम्, 'अर्थक्रियामेदाद् यस्तुभेदः स्यादिनि । न, दाह-पारिभागेनापि कशानोरभेदात् । 'तत्रादृष्टयाऽर्थक्रिययाऽर्थभेदः, यथा चक्षष्मत्यपि वधिोऽदृष्टया शब्दबुद्ध्येन्द्रियभेद' इति चेत् ? नाद्वैते किश्चिदेकवाऽदृष्टं नाम । ततश्च तत्रादृष्टार्थक्रियासिद्धौ तभेदसिद्धिः, सिद्धे च भेदे तत्रादर्शनमितीतरेतराश्रयः । अपिच, सन्मात्रे सर्वत्र प्रत्यक्षाद् निश्चिते तत्र भेदानवकाशः, कालभेदाभावेन 'सोऽयम्' इत्यवमर्शाभावेऽपि निर्विकल्पकलब्धविधिरूपाबाधाद, अलन्धरूपस्य चानिषेधात्, खपुष्पादिनिषेधेऽपि सिद्धेषु खादिष्वेव पुष्पादीमा निषेधात् । 'कुतश्चिद् निमित्तान घुद्धौ लन्धरूपाणां तेषां महिनिषेधः' इत्यन्ये ।
[ अर्थ क्रिया मेद से वस्तुभेद सिद्ध नहीं है। यदि यह कहा आय कि-'अर्थ क्रिया के भेद से वस्तु में मेव की सिद्धि प्रावश्यक है क्योंकि एक ही कारण से समस्त अर्थ क्रियाओं का उदय युक्तिसंगत नहीं है। तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एक हो अग्नि से दाह-पाकादि विभिन्न अर्थ क्रियाओं का उदय होता है। अतः अर्थ क्रिया का भेद वस्तुमेव