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स्था- ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
[ चैतन्यनिष्ठ आवरण साक्षि सिद्ध है ] यदि यह शंका हो कि 'आवरण को चैतन्यनिष्ठता में यदि प्रमाण होगा तो उस आवरण की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रमाणसिद्ध का निषेध नहीं होता। यदि प्रमाण न होगा तो उसको सिद्धि हो नहीं हो सकती है। अतः यह कहना कि 'चैतन्यविषयक अशान सय में ही आश्रित है-ठोक नहीं है तो इस शंका का उत्तर यह है कि-चैतन्य में प्रज्ञान का भावरण साक्षिप्रमाण से सिद्ध है क्योंकि अमां न जानामि-यह अनभव होता है और इस अनुभव के प्रति चाक्य में जो 'मां' शब्द है उसमें द्वितीया का अर्थ होता है विषयत्व और वह विषयस्य अज्ञानजन्य प्रावरण रूप अतिशयस्वरूप है। इस प्रकार 'अहं मां न जानामि का अर्थ है-मैं आत्मनिष्ठावरणजनक अज्ञान का आभय हूं। अतः इस अनुभव से चैतन्य में अज्ञानजन्यावरण की सिद्धि स्पष्ट है।
[ अज्ञातो घट:-इस व्यवहार की उपपत्ति का प्रश्न ] कर्म कारक में अम् प्रत्ययका अज्ञानजन्याचरणरूप अतिशय । अर्थ मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि अज्ञानजन्य आवरण तो चिन्मात्र निष्ठ ही होता है तो 'घटोऽज्ञात्तः' यह व्यवहार कैसे उपपन्न होगा? प्रश्नकार का आशय यह है कि ब्रह्म चैतन्य स्वतः प्रकाश है। अतः उस में सर्वदा 'अस्ति' 'प्रकाशते' इस व्यवहार की प्रसक्ति होती है और 'नास्ति' 'न प्रकाशसे यह सर्वसम्मत व्यवहार को अनुपपत्ति प्रसक्त होती है। अत: 'अस्ति-प्रकाशते, इस व्यवहार का अभाव और 'नास्ति' मप्रकाशते' इस व्यवहार को उपपत्ति के लिये ब्रह्मचैतन्य अज्ञानजन्यावरण की कल्पना तो युक्तिसंगत है-किन्तु घटादि तो स्वप्रकाश है नहीं, अतः उसमें सवा 'अस्ति' 'प्रकाश' इस व्यवहार की प्रसक्ति न होने से 'नास्ति' 'न प्रकाशते' इस व्यवहार के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। अतः घटादि में अज्ञानअन्यावरण को कल्पना व्यर्थ है। अतः यदि 'अज्ञात' शब्द का प्रज्ञान जन्यावरणाश्रयत्व अर्थ होगा तो 'घटोऽज्ञातः' इस व्यवहार की उपपत्ति कैसे हो सकेगी ? -इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्ती विद्वानों का यह कहना है कि साक्षिचैतन्य में विषयों के साथ अज्ञान का प्रध्यास होने से विषयों में अज्ञानजन्य प्रावरणाश्रयत्यरूप अज्ञातत्व वा प्रतिभास हो सकता है। वेदान्तीयों के इस प.थन का तात्पर्य यह है कि जसे एक ही ईश्वर सत्यप्रधान अविद्या, रजःप्रधानाविद्या एवं तमःप्रधानाविद्या रूप उपाधि के भेद से 'यिष्णु-मह्मा और रुत' ऐसे तीन प्रकार का होता है, उसी प्रकार साझिञ्चतन्य जोव और ईश्वरभाव से दो प्रकार का होता है, अर्थात साक्षी के दो भेद होते हैं-जोवसाक्षो और ईश्वरसाक्षी। ईश्वरसाक्षी में ईश्वरत्वावदेवेन विषयों का प्रयास होता है-ज्ञान और आवरण भी चिम्मात्रा होने से साक्षी में विद्यमान होते हैं। अतः साक्षो में अध्यस्तरूप से विद्यमान विषय में प्रज्ञानावरण को 'अज्ञातो घटः' इस प्रकार प्रतीति हो सकती है । यह ठीक उसी प्रकार सम्भव है जैसे स्फटिकशिला में संनिहित रक्तकुसुम के लौहित्य और संनिहित मनुष्य के मुख का प्रतिबिम्ब होने पर 'लोहितं मुखम्' इस प्रकार मुख में लोहित्य के संसर्ग का भान होता है। तो जैसे मुख में कुसुम के लोहित्य का संसर्ग अनिर्वचनीय होता है, उसी प्रकार घटादि विषय में चिनिष्ठावरण का संगर्स भी अनिर्वचनीय होता है। यवि ऐसा न मानकर मुख में कुसुमस्थलौहित्यसंसर्ग का ही और घटादि में चिद् में विद्यमान आवरण संसर्ग का ही भान माना जायगा तो अन्यथास्याति को प्रापत्ति होगी। जो युक्तिसंगत न होने से वेदान्ती को मान्य नहीं है। अतः उक्त रीति से घटादि में अज्ञानजन्य आवरणसंसर्गरूप अतिशय के