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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०१
[ अज्ञान का आश्रय और विषय चैतन्य है-विवग्णाचार्य] अनुभवों से जो अभावविलक्षण अज्ञान सिद्ध होता है उस विषय में विवरणाचार्य का यह मत है कि उस प्रज्ञान का आश्रय और विषय चैतन्यमात्र है। क्योंकि यदि उसके आश्रम और विषय में मेव माना जायगा तो दो एवार्थ की कल्पना में गौरव होगा। चतत्य में आश्रित चैतन्य विषयक प्रज्ञान कल्पित है अतः उसके कारण चैतन्य के अखण्डत्व प्राधि को अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि अखण्डत्वादि वस्तुतः चैतन्यरूप ही है और वह चैतन्यरूप प्रज्ञान से प्राबूत नहीं होता। अखण्डत्व के चैतन्यरूप होने पर भी 'चंतन्यं स्फुरति नाखण्डत्वादि' चैतन्य का स्फुरण होता है किन्तु उसके
वादि का स्फूरण नहीं होता'-यह व्यवहार अज्ञानात्मक आवरण से चैतन्य और अखप्उत्वादि में भेद की कल्पना से उपपन्न होता है । यदि यह प्रश्न किया जाय कि 'अज्ञान का प्राश्रय यदि बैतन्य है तो यह अपने आश्रय का ही प्रावरण कैसे करता है ?" तो इस का उत्तर यह है कि-यह सत्य है कि अपने आश्रम को ही अपने द्वारा आवृत करने में कुछ असमञ्जसता प्रतीत होती है किन्तु यह बुर्घट नहीं है, क्योंकि अन्धकार में अपने आश्रय की ही आवारकता देखी जाती है ।
अथ चैतन्यनिष्ठावरणे मानसरचे तदसत्वे वावरणाऽनिवृत्ति तदसिद्धिप्रसङ्ग इति चेत् ? न, साचिसिद्धत्वात् तस्य, 'अहं मां न जानामि' इत्यनुभवात् । अत्र च 'माम्' इति द्वितीयार्थस्य विषासमाझानागावर हसानिमालियामोल्लेखात् । ननु चिन्मात्रनिष्ठ आवरणे 'घटोऽज्ञातः' इति कथम् । 'अस्ति' 'प्रकाशते' इति स्वतः स्फुरति चतन्ये ब्रह्मपि तथाव्यवहारप्रसक्ती 'नास्ति' 'न प्रकाशते' इति व्यवहारार्थमेवावरणकल्पनात घटादौ तु स्वतो. ऽप्रकाशे तस्य व्यर्थत्वादिति चेत् ? ___ अत्राहुः 'विषयः सहाझानस्य साचि चैतन्येऽभ्यासात् प्रतिभासः' इति । अस्यार्थ:ईश्वरस्योपाधिषशाद् विष्ण्वादि विध्यवत् साक्षिण एव ततो जीवेश्वरभावेन द्वैविध्यात् , साक्षिणीश्वरत्वावच्छेदेन तत्र सस्वाद् विषयनिष्ठतयाऽानावरणप्रतीतिः 'अज्ञातो घटः' इति, यथा लौहित्य-मुखयोः स्फटिकाचलपतिविम्वितयोः 'लोहितं मुखम्' इति परस्परसंसों भासते । तेन कुसुमादिनिष्टलौहित्यसंसर्ग इव मुखे चिनिष्ठावरणसंसर्गो घटादावनिर्वचनीयः, अन्यथाऽन्यथाख्यात्यापनः । अत एवं घटादेश्यज्ञानविषयत्वम् , अज्ञानअन्यावरणसंसर्गरूपातिशयशालित्वात् । स चायमावरणसंसर्गो घटज्ञानेन नश्यति, घटज्ञानदशायाम् , 'अज्ञातो घट:' इत्यननुभवात् ।
अस्मिन् पसे मूलाज्ञानादेवोक्तविधया शुक्तिविषयाद् रजतोत्पत्तिः, शुक्तिज्ञानेन चावरणसंसर्गनाशे शुक्तिविषयता मूलाज्ञानस्य नहा, इति विशिष्टाशाननाशात् सदिलासाझाननिसिरूपबाधन्यवहारः, न त्वज्ञाननिवृतिः ।