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मा० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
'वेतन्यं स्फुरति नाखण्डत्वादि' इत्येवं तेनावरणेन भेदकल्पनात् । 'आश्रयमेव कथमावृणोति तत् ।' इति चेत् ? सत्यम् . अन्धकारे तथादर्शनात् ।
[मझानसा प्रतीशियाँ 'मैं अज्ञानी हूँ' इत्यादि ] वेदान्तदर्शन में स्वीकृत प्रज्ञान यह माया-अविद्यादि शब्दों से अभिहित होता है । अहमज्ञः-- मैं अज्ञानी हूं' 'मां अन्यं च न जानामि = 'मैं अपने को और अन्य को नहीं जानता हूं', बटुक्तमर्थ न जानामि- 'मैं तुम से कथित अर्थ को नहीं जानता हूं,' शास्त्रार्थ न जानामि = शास्त्र का अर्थ नहीं जानता इत्यादि अज्ञानांश में अनुगत प्रतीति अज्ञान के अस्तित्व में प्रमाण है। क्योंकि ये प्रतीति अनुगत है और प्रतीति का अनुगम विषय के अनुगम के बिना उपपन्न नहीं हो सकता । यदि विषयानुगम के बिना भी प्रतीति का अनुगम माना जायगा तो सत्ता प्रादि सभी सामान्यों का उत्र होगा। यदि यह कहा जाय कि- 'उक्त प्रतीति का विषय ज्ञान सामान्य का अभाव है और यह अनुगत है अत एव उससे इन अनुगत प्रतीतियों की उपपत्ति हो सकती है ।'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि आत्मा में शानसामान्याभाव नहीं रहता। अतः आत्मा में ज्ञानसामान्याभाव का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो सकता। अर्थ न जानामि' इस प्रकार अर्थ के साथ ही अज्ञान का अनुभव होता है, प्रतः यह नहीं कहा जा सकता कि-'जिस समय किसी अर्थ का ज्ञान नहीं है उस समय ज्ञानसामान्याभाव आत्मा में रहता है अतएव उस समय आत्मा में ज्ञानसामान्याभाय का प्रत्यक्ष हो सकता है।'
[ 'अर्थ न जनामि' इस प्रतीति का विषय क्या है ? ] यदि यह कहा जाय कि-"अर्थ के साथ अज्ञान का जो 'अर्थ न जानामि' इस प्रकार अनुभव होता है उस का विषय अर्थगत संख्या के ज्ञान का अभाव है। अतः अर्थ के अनुभव के साथ ज्ञानाभाव के भी अनुभव में बाधा नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि फिर भी 'संख्यां न जानामि' इस अनुभव को उपपन्न करने के लिये कोई गति-मार्ग नहीं है । क्योंकि यह अनुभव संख्याविषयक है । अत एव इस अनुभवकाल में संख्याज्ञान का प्रभाव न रहने से इसे संख्याज्ञानाभावविषयक नहीं माना जा सकता। यदि कहा जाय कि--"यह अनुभव संख्या के अपरोक्षज्ञानाभाय को विषय करता है अतः इसकी उपपत्ति में बाधा नहीं हो सकती। क्योंकि इस अनुभव के काल में संख्या का अपरोक्षज्ञान नहीं रहता।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर 'शास्त्रार्थ न जानामि' इस अनुभव की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि शास्त्रार्थ का अपरोक्षकान ज्ञात न होने से उसके अभाव का भी अनुभव नहीं हो सकता ।
यदि यह कहा जाय कि उक्त सभी अनुभव में स्वत्र एक ही प्रकार का ज्ञानाभाव विषय नहीं है किन्तु कहीं पर संख्याज्ञानाभाय-जैसे 'प्रथं न जानामि' इस अनुभव में, कहीं पर अपरोक्षशानाभात्र जैसे 'संख्यां न जानामि' इस अनुभव में, और कहीं निश्चयाभाव जैसे 'शास्त्रार्थ न जानामि' इस अनुभव में, विषय है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त प्रतीतियों में न जानामि' इस अंश में अनुगताकारता को उपपत्ति न हो सकेगी । अतः उस अंश में अनुभवसिद्ध अनुगताकारता के अनुरोध से एक अनुगत अज्ञान की कल्पना आवश्यक है।