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[ शास्त्रवार्ता० श्लो०१
अत: लाघव से एक स्फुरण सिद्ध होता है। अतः नैयायिफावि जिस स्फुरण को 'अनुव्यवसाय' शब्द से बहुत करते हैं वह वेदान्दमत में नित्य एक प्रात्मस्वरूप है। प्रात्मस्वरूप स्फुरण ही घटादि विषयों को और उसके अन्तःकरणवत्तिरूप प्रतिभासों को ग्रहण करता है। जैसे, न्याय मत में अनुव्यवसाय घटादि के ज्ञान को और ज्ञान के विशेषणरूप घटादि को ग्रहण करता है। यह स्फुरणस्वरूपात्मा सुखादि का प्राश्रय नहीं है क्योंकि सुखादिविषयक है, जो यद्विषयक होता है वह उसका प्राश्रय नहीं होता-यह नैयायिकादि को भी मान्य है। दूसरी बात यह है कि, स्फुरण में सुखादिमत्त्व का 'स्फुरणं सुखादिमत्' ऐसा अनुभव नहीं होता है। इस प्रकार सुखदुःखादि के वैचित्र्य से उसके प्राधार में मेव होने पर भी जो उनका स्फुरण है उसमें भेद नहीं है। एवं यह सर्वग्राही एक नित्यज्ञान की वेदान्सीनों की कल्पना सर्वथा अपूर्व भी नहीं है, क्योंकि नैयायिकादि भी ईश्वरज्ञानरूप में ऐसे ज्ञान का प्रभ्युपगम करते हैं।
[समस्त कार्यों का उपादान कारण एक नित्य ज्ञान ] सब बात यह है कि कार्यमात्र के कारण रूप में एक नित्यज्ञान को सिद्धि होती है । ज्ञान के आश्रय को कार्यमात्र के कारण रूप में सिद्धि नहीं होती। जो नित्य एकज्ञान कार्यमात्र के कारणरूप में सिद्ध होता है उसमें विभिन्न उपाधि के भेद से विविधप्रतिभास सम्भव है अतः जैसे एक हो चेतन में उपाधिवैचित्र्य से सुख-दुःखादि का वैचित्र्य उपपन्न होता है, उसी प्रकार एक ही में बन्ध-मोक्षादि की व्यवस्था भी उपपन्न हो सकती है। अत एव आत्मा में औपाधिक हो भेद होता है। उसमें पारमाथिकमेव कल्पना का कोई प्रयोजन नहीं है।
जीव-ईश्वरादि का जो विभाग है वह भी प्रज्ञानोपाधिमूलक है । अर्थात् अज्ञानसमष्टि से उपहितारमचैतन्य ईश्वर है और अज्ञानव्यष्टि से उपहितात्मचैतन्य जीव है। अज्ञान में व्यक्तिगत भेद होने से तत्तव अजान से उपहित जीव चैतन्य में भी औपाधिक भेद होता है। किन्तु ईश्वर एक ही होता है क्योंकि समस्त अज्ञानों को एक समिट से यह उपहित होता है । अतः ईश्वर को उपाधि में भेव न होने से ईश्वर में औपाधिक भेद भी नहीं होता ।
अज्ञानं च मायाऽविद्यादिशब्दाभिधेयम् । मानं च तत्र-'अहमज्ञः', 'मामन्य च न जानामि', 'त्वदुक्तमर्थ न जानामि', 'शास्त्रार्थ न जानामि', इत्यायनुगतः प्रत्ययः, अनुगत. विषयं विना तदनुपपत्ते, अन्यथा सत्तादिसामान्योच्छेदप्रसङ्गात् , 'झानसामान्याभावोऽत्र विषय' इति चेत् ? न, आत्मनि तस्याभावात् , अर्थेन सहानुभशाच्च ।-'अर्थ न जानामि' इत्यर्थगतसंख्याज्ञानाभावो विषय इति चेत् ? न, 'संख्यां न जानामि' इत्यत्राऽगतेः । 'तत्रापरोक्षज्ञानाभावो विषय' इति चेत् १ न, 'शास्त्रार्थ न जानामि' इत्यत्रानुपपत्तेः । कचित् संख्याज्ञानाभावः, क्वचिदपरोक्षज्ञानाभावः, क्वचिद् निश्चयाभावो विषय' इति चेत् ? न, अननुगमात् ।
'तञ्च चिन्मात्राश्रयविषयमिति विवरणाचार्याः, आश्रयविषयभेदकल्पनायां गौरवात् । कल्पितं घेदम्, तेनाखण्डत्वादेवस्तुतश्चिद्र्यत्वात् , चिद्रूपस्य चानावृतत्वाद् नानुपाचा,