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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
भी है, क्योंकि ग्रह का ब्रह्म से भिन्न कोई सजातीय पदार्थ न होने से उस में सजातीयभेद का मी प्रभाव है। बहर का सजलीय कोई नहीं है इस विषय में शंका करने का कोई अवसर नहीं है, क्योंकि ब्रह्म से भिन्न ब्रह्मसजातीय का कोई साधक प्रमारण नहीं है । अर्थात यह नहीं कहा जा सकता कि चेतनों में परस्परभेव का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि जैसे घटादि का परस्पर भिनतया अनुभव होता है उस प्रकार चेतन के परस्परमेद का अनुभव नहीं हाता । यदि अनेकात्मवादी की ओर से यह कहा जाय कि' तत्तच्छरीर में भिन्न-भिन्न चेतन को कल्पना आवश्यक होने से चेतन का परस्पर भेव सिद्ध होना आवश्यक है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सभी शरीरों में एक चेतन के द्वारा हो प्रवृत्ति की उपपत्ति सम्भव होने से शरीरों में शरीरमेव से खेतनभेद की कल्पना असङ्गत है ।
[ अन्तःकरण ( उपाधि) भेद से सुखादिवैचित्र्य की उपपत्ति ]
सुख-दुःखादि के वैचित्र्य से भी चेतन में अनेकत्व का अनुमान नहीं हो सकता किन्तु विभिन्न अन्तःकरणरूप उपाधि के भेव से एक चैतन्य में हो सुख-दुःखादि के चित्र को उपपत्ति हो सकती है, अर्थात् यह कहा जा सकता है कि सुख-दुःखादि विभिन्न अन्तःकरणों में प्रादुभूत होता है । अतः दिन अन्यकम में नुख होता है तकरण द्वारा उपहित चैतन्य सुखी होता है और जिस अन्तःकरण में दु:ख उत्पन्न होता है उस अन्तःकरण द्वारा उपहित चैतन्य दुःखी होता है ।
यह तथ्य श्राकाश के दृष्टान्त से सुखबोध्य है यह स्पष्ट है कि एक ही प्राकाश न्यायिक मत में भेरी (वाद्यविशेष) रूप उपाधि के द्वारा शब्दविशेष का उपादान कारण भी होता है और कर्णरूप उपाधि द्वारा शब्दग्राहक भी होता है । तथा अनेकात्मवादी भी प्रत्येकात्मा के लिये विभिन्न अन्तःकरण और विभिन्न इन्द्रिय आदि स्वीकार करते ही हैं। अतः जब विभिन्न अन्तःकरण आदि का अभ्युपगम श्रनिवार्य है तो उसी को आत्मा की उपाधि मान लेने से उन उपाधियों के भेद से एक आत्मा में भी सुख-दुःखादि के वैचित्र्य की उपपत्ति तथा एककाल में एक वस्तु के ज्ञान और प्रज्ञान की व्यवस्था हो सकती है तो आत्मभेद की कल्पना गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है ।
किश्च घटादयः, शरीरादयः, बुद्ध्यादयः तदाधारथ स्फुरन्तीत्यविवादम् । स्फुरणं चोपाधिभेदं विनाऽविभाव्यमानभेदतया लाघवेन चैकम् । ततश्च परेषामनुव्यवसायशब्दाभिधेयं स्फुरणं नित्यमेकमात्मेत्युच्यते । तच्च न सुखादिमत्, तद्विषयन्वात्, अननुभवाच । एवं च सुखादिवैचिश्येण तदाधारभेदेऽपि न स्कुरणभेदः । इष्यते च नैयायिकैरपि व्यापकमेकं नित्यमीश्वरज्ञानम् । वस्तुतः कार्यमात्रोपादानतया नित्यैकज्ञानस्यैव सिद्धि:, न तु तदाश्रयस्यापि, तस्यैव च तत्तदुपाधिभेदप्रतिभाससंभवे सुखादिवैचित्र्य-बद्धमोक्षादिव्यवस्थोपपत्तौ न पारमार्थिकभेदकल्पनावकाशः, जीवेश्वरादिभागस्याप्यज्ञानोपाधिकत्वात् ।
[ सर्वग्राही नित्य एकात्मस्वरूप स्फुरण की सिद्धि ]
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि घटादि असन्निहित पदार्थ, शरीरादि समितिपदार्थ, बुद्धि आदि श्रान्तरपदार्थ और उनका आधार द्रव्य इन सभी का स्फुरण होता है इसमें किसी को विशव नहीं है। अब इस स्फुरण में घटादिविषयरूप उपाधिभेद के बिना भेद का ज्ञान नहीं होता,