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[ शास्त्रवा० श्लो०१
{ स्वाश्रप में स्वात्यन्ताभाव विरुद्ध होने का आक्षेप ] यदि वेदान्तमत के सम्बन्ध में यह आक्षेप किया जाय कि वेदान्ती द्वारा वस्तु को मिथ्या मानना असङ्गत है, क्योंकि स्वाश्रय में विद्यमान प्रत्यन्ताभाव का प्रतियोगित्व हो वेदान्तमत में मिथ्यात्व है किन्तु यह किसी भी वस्तु में सम्भय नहीं है, क्योंकि भावाभाव में परस्पर विरोध होने से सर्वावि के आश्रम में सर्वादि का अत्यन्ताभाव सम्भव न होने के कारण उस में स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्व असम्भव है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जैसे पृथ्वी में रूप में गन्धसामानाधिकरपय होने में कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार रज्जु स्थलीय सर्प में भी स्याभाव के सामानाधिकरण्य में कोई विरोध नहीं है । अर्थात् रज्जु में सर्प और उसका प्रभाव दोनों रह सकता है । अत एव सर्प में स्वाश्रयनिष्ठ अत्यन्ताभावप्रतियोगित्व अक्षण है। इस पर यदि यह शंका की जाय कि रज्जु में यदि सर्प का भी अस्तित्व है ता रज्जु में प्रतीयमान सर्प भ्रान्त यानी भ्रम का विषय कसे होगा? तो इसका उत्तर यह है कि सर्प स्वाभाव के आश्रय रज्जु में विद्यमान होने से भ्रम का विषय है। नैयायिकादि भी स्वभाव के प्राश्रय में सत्त्वेन ज्ञायमानत्व को ही नास्तित्व का प्रयोजक कहते हैं। उसकी अपेक्षा वेदान्त में स्वाभायाश्रय में सत्य को हो भ्रान्तिस्व का प्रयोजक मानने में लाघव है ।
[रज्जुस के व्यवहारापन्न होने की आपत्ति मिथ्या । रज्जु में सर्पसत्ता मानने पर यदि यह शंका की जाय कि-पुरोवती रज्जु में सर्पसत्ता है तो उसमें सर्प का व्यवहार होना चाहिये-तो इसका उत्तर यह है कि श्रम दशा में यह आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि भ्रमदशा में यह व्यवहार होता ही है और बाधदशा में भी वह आपत्ति नहीं है, क्योंकि उस समय बाद ही उसका प्रतिबन्धक हो जाता है । तथा भ्रम और बाध दोनों की प्रभाव दशा में भी उक्त व्यवहार की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उस दशा में व्यवहार के कारणभूत ध्यवर्तव्य ज्ञानादि सामग्री ही नहीं होती। तो इस प्रकार उक्त युक्तिओं से यह निविघाबरूप से सिद्ध होता है कि जैसे रज्जु में प्रतीत होने वाला सर्प सत् असत् रूप से अनिर्वचनोय होता है, अतः रज्जु ही उस का तात्त्विक रूप है, उसी प्रकार प्रपञ्च भी सत्-असत् रूप से अनिर्वचनीय है और ब्रह्म हो प्रपञ्च का तात्त्विक रूप है।
तचाऽद्वितीयम् , प्रपश्चाऽसिद्धया विजातीयभेदशून्यत्वात् । अखण्डमपि, सजातीयभेदशून्यत्वात् । तथाहि-न तावच्वेतनभेदः प्रत्यक्षसिद्धः । न हि चेतना घटादय इव भेदेनानुभूयन्ते । 'तत्तच्छरीरप्रवृत्त्या भिन्नाः कल्प्यन्ते' इति चेत् १ न, एकेनैव तत्तच्छरीरप्रकृत्युपपत्ताबनेककल्पनानुपत्तः । 'सुख-दुःखादिवैचित्र्यादनेकत्वं' इति चेत् ? न, तस्याप्युपाधिभेदत एवोपपत्तः । दृष्टं हि गगनस्यैकस्यैव भेरी-कर्णाधुपाधिभेदेन शब्दविशेषहेतुत्वशब्दग्राहकत्यादि. वैचित्र्यम् । इष्यत एव चानेकात्मवादिभिर्राप प्रतिचेतनमन्तःकरणेन्द्रियादिभेदः । ततस्तदुपाधित एव सुख-दुःखादिवैचित्र्योपपत्तिः, भानाऽभानव्यवस्थापि तेनैवोपपद्यते ।
[बन्न सर्वसजातीय विजातीय भेद शून्य है ] उक्त विचारों से प्रपत्र के जपावानकारण रूप से जो ब्रह्म सिद्ध हुआ वह अद्वितीय है, क्योंकि प्रपञ्च ब्रह्म से विजातीयरूप में सिद्ध न होने से ब्रह्म में विजातीयमेद का अभाव है। एवं ब्रह्म प्रखण्ड