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स्या० फा० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
रूप से वस्तु की साधकता मानने में लाघव होने के कारण जब अनुभवबल से रज्जु सादि की सिद्धि अपरिहार्य है तो उसके बाद जो उसके कारणादि की कल्पना के प्रश्न से गौरव उपस्थित होता है यह फलमुख होने से अर्थात् रज्जु सर्प के सत्व को सिद्धि के बाद में उपस्थित होने से रज्जुसप के सत्त्व को सिद्धि में बाधक नहीं हो सकता ।
[ देशान्तरस्थित सर्प की रज्जु में प्रतीति मानने में गौरव ] सत्य बात तो यह है कि रज्जु-सर्प को प्रतीतिकाल में अतिरिक्त रज्जु-सर्प को सत्ता न मानने में ही गौरव है। क्योंकि जब रज्जुस्थल में अतिरिक्त सर्प को प्रतीति न मानकर देशान्तरस्थ सर्प की प्रतीति मानी जायगी तो रज्जुस्थल में प्रतीयमान सर्प में देशान्तरसत्त्व, और प्रसंनिकृष्टसर्प में अपरोक्षत्व, और ज्ञान में इन्द्रियसंनिकर्षच, तथा सादृश्यज्ञानादिरूप दोष में ज्ञानात्मकसंनिकर्ष द्वारा सन्निहित वस्तु के प्रत्यक्ष जनन का सामर्थ्य इत्यादि की कल्पना करनी पड़ेगी।
किच, परैरपि विशेषाऽदर्शनस्य भ्रमहेतुत्वमुपेयते । तत्र तैरभावत्वं कल्भ्यते, अस्माभिस्तु भावत्वं लघुभूतम् । तैश्च निमित्तत्वं कल्प्यते अस्माभिस्त्वन्तरङ्गमुपादानत्वम् इति । 'स्वाश्रयनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपं कथं मिथ्यात्वम् , सर्पस्य स्वाभावसामानाधिकरण्यविरोधाद्' इति चेत् १ न, पृथिव्या रूपे गन्धसामानाधिकरण्याऽविरोधवद् रज्जो सर्प स्वाभावसामानाधिकरण्यस्याप्यविरोधात् । 'कथं तहि भ्रान्तिस्यम्' इति चेत् १ स्वाभाशश्रये सस्यात् । परेषा स्वाभावाश्रये सच्चावगाहित्वं भ्रान्तित्वप्रयोजकम् , अस्माकं तु स्वामावाश्रये सत्त्वम् इति लाघवम् । 'पुरोवर्तिनि सर्पसत्त्वे व्यवहारः स्याद्' इति चेत् १ भ्रमदशायां स्यादेवबाघदशायां तु बाघस्य प्रतिवन्धकवादेव, अन्यदा च सामग्री विरहादेव न स्यादिति । तदेवमनिर्वचनीयस्य सर्पस्य रज्जुखि अनिर्वचनीयस्य प्रपञ्चस्य ब्रय व तचम् ।।
[विशेषाऽदर्शन की अपेक्षा विशेषविषयक अज्ञान की काग्यता में लाघव ]
इस के अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि नैयायिकादि अन्य दिवान् भी विशेषावर्शन अर्थात् भ्रम-अधिष्ठान असाधारण धर्म के अदशन को भ्रम का कारण मानते हैं, जैसे रज्जुस्व का अज्ञान सर्प भ्रम का और शुक्तित्व का प्रज्ञान रजत भ्रम का कारण होता है। यह विशेषाऽदर्शन उनके मत में विशेषदर्शनाभाव रूप होता है, अतः विशेष दर्शनाभावत्वरूप से भ्रम के प्रति कारणता मानने में कारणतावच्छेवक में गौरव होता है। अब वेदान्ती के मत में विशेषादर्शन विशेषविषयक भावात्मक प्रज्ञानरूप होता है । अत एव विशेष विषयक अज्ञानत्वरूप से कारण मानने में लाव होता है। दूसरी बात यह है कि नयायिकादि विशेषादर्शन को निमित्त कारण मानते हैं, अतः वह भ्रम का बहिरङ्ग कारण है प्रोर वेदान्ती उसे भ्रम का उपादान कारण मानते हैं अत एव अन्तरङ्ग कारण होता है। इस प्रकार नैयायिकादि के मत में विशेषावर्शन और भ्रम इन दोनों में भेद होता है और वेदान्ती के मत में विशेषादर्शन और भ्रम में तादात्म्य होता है अतः वेदान्तमप्त में लाघव स्पष्ट है।