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स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
स्फुरणाभावात् । 'यद्धि यदज्ञानेनोत्पद्यते तत् सत्सामानाधिकरण्येन स्फुरति' इति नियमात् । अत एवान्तःकरणावच्छिन्नचैतन्याऽज्ञानं न तदारम्भकम् , साक्षिवेद्येऽन्तःकरणेऽज्ञानाऽसंभवाच ।
[ स्वप्न में मासमान स्थादि अनिर्वचनीय नहीं है ] जिस प्रकार शुक्तिरजतादि को अनिर्वचनीयता नहीं सिद्ध होती उसी प्रकार स्वप्नरपादि की भी अनिर्वचनीयता सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि स्वप्न में असंनिहित रथावि का ही निद्रा दोषवश संनिहितत्य रूप से भान होता है। वेदान्तमत में तो स्वाग्निकपदार्थों के सम्बन्ध से भी भारी अनुपपति है, जैसे कि, स्वप्न को मूलासान का कार्य नहीं माना जा सकता क्योंकि संसारदशा में उसका
ता है। दूसरी बात यह है-जैसे रजतभ्रम में शक्तिविषयक अज्ञान के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान होता है उसी प्रकार स्वप्न में जाग्रत प्रपञ्च के अज्ञान के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान होता है, अत: जैसे रजतभ्रम मूलाज्ञान का कार्य नहीं होता किन्तु शुक्ति के अज्ञान का ही कार्य होता है । उसी प्रकार स्वप्न भी मूलाज्ञान का कार्य न होकर जाग्रत् प्रपञ्च के अज्ञान का ही कार्य होगा।
अब यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'जाग्रत प्रपश्च का अज्ञान हो स्वप्न का आरम्भक हैक्योंकि ऐसा मानने पर जैसे शुक्ति के अज्ञान से शुक्ति में रजत को उत्पत्ति होती है उसी प्रकार जाग्रत् प्रपन्न के अज्ञान से जाग्रत प्रपश्च में स्वप्नरथादि की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा। इस प्रसङ्ग को इष्टापत्ति भी नहीं माना जा सकता क्योंकि जाग्रत्प्रपञ्चसामानाधिकरण्येन स्वप्नरयादि का, आगत् प्रपञ्च को लेकर यह रथ हैं' ऐसा स्फुरण नहीं होता-जब कि नियम यह है कि जो जिसके अज्ञान से उत्पन्न होता है, उसका तत्सामानाधिकरप्येन स्फुरण होता है, जैसे शुक्ति के प्रज्ञान से उत्पन्न होने वाले रजत का उसी शुक्ति को ले कर 'इदं रजतम्' इस रूप में शुक्तिसामानाधिकरण्येन रजत का अनुभव होता है। इसी कारण अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य का प्रज्ञान भी स्वप्न का आरम्भक नहीं माना जा सकता एवं यह भी कारण है कि अन्तःकरण साक्षिवेद्य होता है, और अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यविषयक प्रज्ञान नहीं हो सकता।
यत्तु “चिन्मात्रनिष्ठमूलाज्ञानमेवेश्वग्त्यावच्छेदेन गगनादि सर्वमारभमाणं जीवत्वावच्छेदेनाप्यहवारस्वप्नादिचित्मामानाधिकरण्येन स्फुरदारभते, जाग्रत्तपश्चाज्ञानान्वय-व्यतिरेकानुविधानं तु स्वप्नारम्भकनिद्रादोषेणान्यथासिद्धम् , संसारदशायर्या वाधस्तु सक्लिासाज्ञाननिवृश्चिरूपो नेष्ट एव, अभावबोधो बाधस्तु स्वप्रारम्मकाज्ञानाऽनिवृत्वावपि तुलाज्ञानाऽनङ्गीकारपचे रजतादाविव मंभवी, स्वप्नारम्भकनिद्रादोषनिषश्याऽऽशेप्यामावज्ञानोपपत्तेः" इति तद्न, मूलाज्ञानजन्यत्वे स्वप्नस्थादेर्घटादेखि निवृत्तावपि मिथ्यात्वप्रतीत्यनुपपत्तः । तजन्यमिथ्यात्वप्रतिपत्तायाद्यशक्तेः प्रतिबन्धकत्वात् सामान्यतो मिथ्यात्वधीप्रतिबन्धिकायां तस्या तत्तदोषनिवृत्तरत्तेजकत्वे विनश्यदवस्थदोषजनिते रजतादौ तदानीमेव मिथ्यात्यप्रतिपच्यापत्तेः, एकदोषनिवृत्तावन्यमिथ्यात्यबुद्धचापत्तौ तत्तन्मिथ्यात्वबुद्धी तत्तद्दोषनिवृत्तिहेतुत्वावश्यकत्वाच ।
[ मूलाज्ञान से स्वप्नादि उत्पत्ति पक्ष की आशंका ] इस सम्बन्ध में वेदान्त की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'चिन्मान में विद्यमान जो