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[ शास्त्रवात स्त०८ श्लो०७
[निर्वचन के निमित्त का विरह होने की बात गलत ] यदि यह कहा जाय कि-"अनिर्वचनीयपद का अर्थ अशक्य निरुक्तित्व नहीं है किन्तु निरुक्ति के निमित्त का अभावरूप है। तात्पर्य यह है कि-'शुक्ति में प्रतीयमान रजत निर्वचनीय है' इस का अर्थ यह नहीं है कि प्रपञ्च का निर्वचन अशक्य है किन्तु उसका अर्थ यह है कि जिस निमित्त से निरुक्ति होती है, प्रपञ्च में उस निमित का अभाव है।"- किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रपञ्च में निरुक्तिनिमित्त का अमाव' ससिद्ध है । जैसे. निरुक्ति के दो निमित्त हो सकते हैं-१. ज्ञान और २. विषय । अर्थात् जो ज्ञान का विषय होता है वह निर्वचनीय होता है अथवा जिस का अस्तित्व होता है घह निर्वचनीय होता है। इन निमित्तों में शुक्ति-रजत में ज्ञानात्मक निमित्त का अभाव नहीं है, क्योंकि उसका ज्ञान सर्वसम्मत है जैसा कि कहा गया है कि 'भ्रमात्मक ज्ञान में जो रजत मासित होता है उसे कुछ लोग सत् कहते हैं, कुछ लोग असत् कहते हैं, और कुछ अन्य विद्वान् अनिवचनीय कहते हैं इसलिये उस रजत के सम्बन्ध में विद्वानों का वमत्य होने से उसका विचार मावश्यक है ।'-इस प्रकार इस कथन द्वारा शुक्तिरजत का ज्ञान वेदान्तीओं ने स्वयं स्वीकार किया है।
[ इदमाकार-ग्जताकार वृत्तिभेद मानने पर आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'शुषितरजत में ज्ञान का प्रभाव है इस कथन का तात्पर्य ज्ञानसामान्य के निषेध में नहीं है किन्तु एक ज्ञान के निषेध में है। आशय यह है कि जैसे सत्यस्थल में 'इदं रजतम्' इस प्रकार इवमाकार-रजताकार एक ज्ञाम होता है रजप्तभ्रमस्थल में उस प्रकार एकज्ञान नहीं होता है किन्तु वहाँ इदमाकार अन्तःकरण की घृत्ति होती है और रजताकार अविद्या की वृत्ति होती है। इसलिये इदं और रजत दोनों वृत्त्यात्मक एकज्ञान के विषय नहीं होते हैं।"-किन्तु इस कथन से भी वेदान्ती को दोषमक्ति नहीं हो सकती । प्रत्युत इस कथन से वेदान्तमत में एक और दोष दृष्टिगोचर होता है-वह यह है कि 'हवं रजतम' इस प्रकार का ज्ञान 'इदं च रजतं च इस स
समूहालम्धन ज्ञान से भिन्न होता है जो इवमाकार-रजताकार एकवृत्ति माने बिना अनुपपष्ट है । फलतः वृत्तिभेद मानने पर भ्रमस्थल में एक विशिष्टज्ञान की उपपत्ति न हो सकेगी।
निरुक्ति के विषयरूप द्वितीय निमित्त का भी अभाव असिद्ध है क्योंकि यदि सप विषय को सत्ता न मानी जायगी तो असल्याति का प्रसङ्ग होगा। यदि असदपविषय की सत्ता न मानी जायगी तो सत्ख्याति का प्रसङ्ग होगा और सदसद् उभयरूप विषय की प्रसत्ता भी नहीं मान सकसे क्योंकि लोक में ऐसो असत्ता की प्रतीति नहीं होती। क्योंकि एक के निषेध में नियम से अ य का विधि होता है। उभयरूप विषय को अलौकिक निवृत्ति मानना भी निरर्थक है, क्योंकि जब उस विरह की लोक को प्रतीति नहीं होती तो उससे निरुक्ति का प्रघरोध नहीं हो सकता।
एवं स्वप्नस्थादयोऽपि नाऽनिर्वचनीयाः, निद्रादोषेण स्वप्नेऽसंनिहितरथादीनामेव संनिहितत्वादिना भानात् । परेषा तु महत्यनुपपत्तिः, तथाहि-न ताबद्' मूलानानकार्य स्वप्ना, संसारदशायां बाधात् , रजतभ्रमस्य शुक्त्यज्ञानान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वषजाग्रत्प्रपश्चाज्ञानान्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वाच्च । न च जाग्रत्प्रपश्चाऽज्ञानमेव तदारम्भकम् , शुक्तौ रजतोत्पत्तिबजायत्प्रपञ्चे स्वाप्निकरथाद्युत्पच्यापत्तेः । न चेष्टापत्तिः, तत्सामानाधिकरण्येन