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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अत एव वह ज्ञान जैसे धर्मों अंश में प्रमाण होता है उसी तरह प्रकारांश में भी प्रमाण होगा। क्योंकि 'एक का धर्म दूसरे में उत्पन्न होकर गहीत होता है। इसमें कोई प्रमाण नहीं है अतः जो धर्म जिसमें है उसी में गृहीत होगा अथवा स्वतन्त्र रूप से गहोत होगा। यदि इस दोष के परिहार के लिये संनिकर्ष के होने से एक के धर्म का दूसरे में ग्रहण माना जायगा तो अन्यथा स्याप्ति होगी और एक स्थान में अन्यथा ख्याति मान लो जायगी तो अन्यत्र सर्वत्र भी अन्यथाख्याति के स्वीकार की आपत्ति होगी। यदि उक्त स्थल में अन्य रजत का अभ्युपगम किया जायगा तो शुक्तिभ्रम के अधिष्ठानभूत रजत का साक्षात्कार होने पर 'इदमेव रजतं शुक्तिस्वेनाऽपश्यम-इसी रजत को मैंने शुक्ति समझ लिया था- इस अनुभव का विरोध होगा । एवं वहां केवल शुक्ति में रजतभ्रम के बाद अधिष्ठान का साक्षात्कार होने पर 'असदेव रजतमत्रान्वभवम' यहाँ हमने असत् ही रजत को देखा'-इस अनुभव का विरोध होगा क्योंकि वेदान्तमत में रजतभ्रमकाल में प्रातिभासिक रजत असत नहीं किन्तु सत् होता है। यदि इस अनुभव को भ्रमात्मक मानेंगे तो इस के विषयभूत अनुभव में असद्रजतविषयकत्व न होने से वह रजतभ्रम का बाधक न हो सकेगा। यदि इस अनुभव के अनुरोध से असत् ही मिथ्यारजत को स्वीकार किया जायगा तो असत् ख्याति की आपत्ति होगी। यदि कहिये कि-'तत्र असदेव' का अर्थ है-'तनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्व' और वह शुक्ति देश में मिप्या रजत को सत् और असत् बोनों स्थिति में अविरुद्ध है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार शुक्तिरजतादि का सत्त्य-असत्त्व दोनों रूप से निर्वाचन सम्भव होने से सत्त्व और असत्त्व रूप से उसकी अनिर्वचनीयता कैसे होगी? यदि यह कहा जाय-'अबाध दशा में सत्व प्रौर बाध दशा में प्रसत्त्व रूप से निर्वचन होने पर भी एक काल में सत्व और असत्त्व रूप से निर्वचन का प्रभाव मानने से दोष नहीं हो सकता'- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस न्याय से घटादि में भी अत्यन्तसत्त्व और अत्यन्ताऽसत्त्वरूप से अवाच्यता न होकर एक काल में सत्वासत्त्वरूप से अनिर्वचनीयता की आपत्ति होगी। इस प्रकार अभ्युपगम करने पर वस्तु को अनिर्वचनीयता निरपेक्ष न होकर सापेक्ष सिद्ध होती है । इसीलिये अवक्तव्यभङ्ग में एक पद से सत्त्वाऽसत्व उभयरूप से वस्तु का प्रतिपावन न हो सकने से जगत् को अनिर्वचनीय कहा गया है।
अथ नाऽशक्यनिरुक्तिकत्वमनिर्वचनीयपदार्थः किन्तु निरुक्तिनिमिचविरह इति चेत् ? ननु किं तद् निमित्तं १ ज्ञानं वा, विषयो वा ? | नाद्यस्य विरह:
"रजतं भाति यद् भ्रान्तो तत् सदेके, परेत्वसत् ।
अन्येऽनिवेचनीयं तदाहुस्तेन विचार्यते ॥१॥ इति स्वयमेव तद्भानाभ्युपगमात् । 'सत्यस्थल इवात्रेद-जतयोरेफवृत्त्यनङ्गीकारा न दोष' इति चेत् ? अयमयरस्तव दोषः इदं च, रजतं च' इति समूहालम्बनव्यावृतविशिष्टज्ञानस्यैकत्ति विनाऽनुपपत्तेः । नापि द्वितीयस्य विरहा, सद्रूपस्याऽसदूपस्य वा विषयस्याऽसत्वेऽसरख्यातेः सख्यातेश्च प्रसङ्गाव, उभयरूपस्य निवृत्तेश्च लोकेऽप्रतीतेः, एकनिषेधेऽन्यविधिनियमात्, अलौकिकतभिवृत्तेवाऽकिश्चित्करस्यादितिदिक् ।