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शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो०१
[भूत पञ्चीकरण प्रकिया ] भूतों का पञ्चीकरण इस प्रकार होता है-पांच भूतों में प्रत्येक के दो भाग करने से कुल दश भाग होते हैं, और प्रत्येक के एक अधं के चार भाग होते हैं जो चार भाग अपने मूल अर्धभाग से अन्य चार विभागों में मिल जाते हैं।
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इस प्रकार प्रत्येक भूत का आधा भाग अन्य चार भूतों के एक भाग से मिलकर फिर एक पूरा भत बन जाता है। इस प्रकार प्रत्येक भूत पञ्चभूतात्मक हो जाते हैं [ देखीये प्राकृति ] । भूतों के इस पञ्चीकरण का कर्ता ईश्वर ही होता है । क्योंकि भूतों के पश्चीकरण के समय कोई भी जीव कर्ता बनने को स्थिति में नहीं होता। क्योंकि उस समय जीव अशरीरी होते हैं और शरीर के बिना जीव में कृतत्व नहीं आ सकता। मूतों के पश्चीकरण में और उस के ईश्वरकर्तृत्व में "तासामेकैक त्रिवृत्तं करवाणि" यह श्रुति उपलक्षणविधया प्रमाण है । आशय यह है कि इस श्रुति से तो पृथ्वी-जल-तेजः इन तीनों में प्रत्येक का त्रिवृत्तकरण ही स्पष्ट रूप से प्राप्त होता हैकिन्तु यह पञ्चीकरण का ही उपलक्षण है । त्रिवृत्तकरण का उल्लेख पश्चीकरण के उल्लेख को अपेक्षा शीघ्रबोध्य होने से उसका पादत: उल्लेख किया गया है । इस प्रकार समस्त भूतों के पञ्चात्मक होने पर भी सब को पृथ्वी-जलादि सभी भूतनामों से व्यपदिष्ट नहीं किया जाता किन्तु जिस में जिस भूत का भाग अधिक रहता है उस अधिकता के कारण हो उसे उस भूत के बोधक पृथ्वी प्रादि शब्द से व्यपविष्ट किया जाता है।
___ साम्प्रदापिकास्तु न पश्चीकृताना कार्यान्तस्त्वमिच्छन्ति, आकाशादिभ्यो वाय्वादिजन्मश्रवणवदपञ्चीकृतेभ्यः पञ्चीकृतजन्मश्रवणाभावात् । किन्तु तान्येव संयोगविशेषावस्थानि पश्चीकृतान्युच्यन्ते । अत एव 'पटोऽपि न तन्तुभ्यः कार्यान्तरम्, किन्तु संयुक्तावस्थास्तन्तव एव' इति सिद्धान्तः । एतेभ्यः पञ्चीकृतेभ्यः पञ्चम्योऽपि ब्रह्माण्डभूधसदिचतुर्दशभुवनचतुर्विधस्थलशरीरोत्पत्तिः । कथं विजातीयेभ्य एककार्योत्पत्तिः ? इत्याक्षिपतां तन्तुभ्यः पटकार्योत्पत्ति स्वीकृत्य तन्तु-केशपट्ट धादिभ्यः प्रतीयमानाऽऽसनादिविचित्रकार्याऽभावमङ्गीकुर्वता कोशपानमेवैकशरणम् । चतुर्विधानि जरायुजा-ऽण्डज-स्वेदजोद्भिज्जानि ! तदेवं निरूपितो हिरण्यगर्भादिरुद्भिज्जान्तो जीवस्य संसारोऽविद्यामूलः ॥१॥