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स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
तु पश्चानामर्धदशकं विधाय पश्चानामर्धपचके इतरार्धपञ्चकस्य प्रत्येकं चतुर्धा विभक्तस्य भागचतुष्टयस्य वस्त्रार्धपरित्यागेन योजनम् । अत्र चेश्वरस्यैव कतृत्वम् "तेषामेकैकं निवृत्तं फरचाणि" इतिश्रुतेः । पृथिव्यादिभागानां बहुत्वात्तु पृथिव्यादिव्यपदेशः ।
[पंचभूत, पंचेन्द्रिय, वाग् आदि का प्रपंच ] समष्टि व्यष्टि उभय रूप लिङ्ग शरीर अपञ्चीकृत भूतों से अर्थात् अन्यभूतमावानापन्न भूतों से उत्पन्न होता है। उस को उत्पत्ति को प्रक्रिया इस प्रकार है-माथा से उपहित ब्रह्मचैतन्य से आकाश की, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि ले जल और जल से पृथ्वी की, इस क्रम से भूतों की उत्पत्ति होती है । भूतों का यह उत्पत्तिकम तस्माद्वा एतस्मादामन आकाशः सम्भूतः, अाकाशानायुः, बायोरग्निः, अग्ने रापः पदयः पनी म श्रुति से सिद्ध है । उत्पत्ति का यह कम युक्तिपोषित भी है ययोकि
काश पहले उत्पन्न न हो तो चाय के सचरण के लिये अवकाश नहीं होगा। एवं अग्नि को वाय की अपेक्षा लोक्रसिद्ध ही है, इसीलिये अग्नि 'मरुत्सख' नाम से प्रसिद्ध है। अग्नि से जल की उत्पत्ति भी इस अनुभव से बुद्धिगम्य होती है कि जब गर्मी अधिक पडती है तभी वर्षा प्रारम्भ होती है । और जल से पृथ्वी का होना भी जल से कठोर बर्फ इत्यादि की उत्पत्ति देखते हुये बुद्धिगम्य है।
[श्रोधेन्द्रिय आकाशरूप नहीं है ] ये भूत सूक्ष्म और व्यापक रोते हैं । इन के सूक्ष्म होने का यह प्रर्थ नहीं कि ये निरययय होते हैं किन्तु उनको सूक्षमता अवययों की विरलतारूप है। अर्थात् इनमें अवयवों का निबिड संयोग नहीं होता । ये अपश्चीकृत भूत हो तदेव तन्मात्रम्' इस व्युत्पति से तन्मात्रशब्द से व्यवहुप्त होते हैं । इन में एक एक भूत से, क्रमशः श्रोत्र-त्वक्-चक्षु-रसना और घ्राण इन पांच ज्ञानेन्द्रियों को और वाक्पाणि-पाद-पायु-उपस्थ इन पांच कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती हैं। सम्मिलित पांचों से अन्तःकरण और प्राण को उत्पत्ति होती है। न्यायदर्शन के समान वेदाती मत में श्रोत्रेन्द्रिय कर्णशष्फुली से अवच्छिन्न प्रकाशरूप नहीं है किन्तु उस का कार्य है और व्यष्टि- समष्टि उभयरूप है । इस लिये श्रोत्र से कर्णशष्कुली के भीतर ही उत्पन्न शब्द के प्रत्यक्ष का नियम नहीं है किन्तु वह चक्षु के समान बाहर विषयदेश में जाकर बहिर्देशवर्ती शब्द का भी ग्रहण कर सकता है। अतः जैसे लोक में प्रतीति है तदनुसार अनेक पुरुषों द्वारा एक ही शब्द का ग्रहण होना इस मत में पुक्तिसङ्गत है। इसलिये इस मत में विभिन्न मनुष्यों को विभिन्न शब्द का ग्रहण होता है यह कल्पना और एक पुरुष को गृह्यमाण शब्द में अन्य पुरुषद्वारा गामाण शब्द के साथ होने वाली एकत्व प्रतीति में सजातीय शब्द निमित्तकत्वप्रयुक्त भ्रमरूपता की कल्पना आवश्यक नहीं होती। कुछ विद्वानों का मत है कि श्रोत्रादि सभी ज्ञानेन्द्रियां पञ्च भूलों के अन्तःकरारूप कार्य से अभिन्न है । अर्थात अन्तःकरण ही कार्यभेद से श्रोत्रादि नामों से व्यवहुत होता है।
अपर विद्वानों का मत है कि वे अन्तःकरण से भिन्न है। कुछ दूसरे विद्वानों का मत यह है कि तन्मात्रों के पश्चीकरण से पश्वीकृत भूतों की उत्पत्ति नहीं होती अपितु तन्मात्रा से उत्पन्न अपञ्चीकृत लिङ्गशरीरों से पश्वीकृत भूतों की उत्पत्ति होती है ।