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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अपि च, आत्म-खपुष्पयदुत्पत्ययोगान सच्चाऽसयाभ्यामनिर्वचनीयः प्रपञ्चः, रजौ सपंवत् । न हि मन्नेव सः, बाधानुभवात् । नाप्यसन, अपरोक्षानुभवात् । 'देशान्तरे सन्नेवेति चेत् १ न, मानाभावात्, तत्र प्रतीयमाने सर्प देशान्तरसत्यस्य प्रत्यक्षेणाऽप्रतीतेः । 'कल्प्यते' इति चेत् ! यत्र प्रतिपन्नं तत्रव किमिति न कल्प्यते । 'वाधानुभवादिति चेत् ? पाधयोन्यं वहिं कल्प्यताम् । युक्तं तद् यद् यथा प्रतीयते तत् तथैवाम्धुपगम्यत इति । 'सर्पसत्त्वे तल्येऽपि कथमेको गच्यो नाप' इति चेत् ? कथं प्रतीतितुल्यत्व एकत्र मुखमपरत्राऽसत्वम् ! 'वाधप्रतीतेरिति चेत् । तुल्यं ममापि ।
[ प्रपञ्च सत् नहीं, असन् नहीं, अनिर्वचनीय है ] इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि प्रपञ्च को सत् अथवा असत् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रपञ्च यदि सत् हो तो जैसे आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार उसको भी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये । यदि असत् हो तो जैसे असत आकाश पुष्प की उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार प्रपञ्च की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती। किन्तु प्रपन्च की उत्पत्ति होती है, अत: रज्जु में उत्पन्न और प्रतीत होने वाले सर्प के समान प्रपञ्च को सत और असत् से विलक्षण मानना अनिवार्य है।
___ यदि यह कहा जाय कि-"सदसद् रूप में प्रपञ्च की अनिर्वचनीयता के साधन में रज्जु-सर्प का दृष्टान्त उचित नहीं है क्योंकि रज्जु-सर्प को केवल सत् अथवा असत माना जा सकता है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रज्जु में प्रतीयमान सर्प को केवल सत् मानने पर उसका बाध नहीं होना चाहिये, जब कि-'अयं न सर्पः' इस प्रकार रज्जु में सर्प का बाध अनुभव सिद्ध है। उसी प्रकार उसे असत् भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसका अपरोक्ष अनुभव होता है। प्रतः सत-असत् रूप में अनिर्वचनीय होने के कारण रज्जु-सर्प का दृष्टान्त रूपेण प्रयोग सङ्गत है ।
[ रज्जु में भासमान सर्प अन्यत्र सन हो-इसमें प्रमाणामाव । यदि यह कहा जाय कि-'रज्जु में प्रतीत होने वाला सर्प रज्जुस्थल में यद्यपि सत् नहीं है किन्तु अन्य स्थान में बन आदि में वह सत् ही है, अत: उसे सत्-असत् रूप से अनिर्वचनीय नहीं कहा जा सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'रज्जु में प्रतीत होने वाला सर्प अन्य स्थान में सत् है। इसमें कोई प्रमाण नहीं है। क्योंकि, रज्जु में सर्वप्रतीतिकाल में उसमें देशान्तरसत्य की प्रत्यक्ष प्रतीति नहीं होती।
पदि यह कहा जाय कि- देशान्तरसत्व की यद्यपि प्रत्यक्षाप्रतीति नहीं होती है, किन्तु उसमें उसकी कल्पना होती है तो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि यदि रज्जु-सर्प में अस्तित्व की कल्पना ही करनी है तो अन्यदेश में अस्तित्व की कल्पना करने की अपेक्षा जिस देश में वह दिखाई दे रहा है उसो देश में उसके अस्तित्व की कल्पना ही उचित है। यदि यह कहा जाय कि-'रज्जु-वेश में प्रलोयमान सर्प का रज्जुदेश में सत्य होने की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि उस देश में उसके बाध का अनुभव होता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि बाघयोग्य सत्त्व की कल्पना में कोई बाधक नहीं है, प्रत्युत यही उचित भी है कि जो वस्तु जैसी प्रतीत होती है उसका उसी रूप