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स्था.क० टीका एवं हिन्दी विबेचन ]
स्मानमन्विच्छेत' इति वाक्यात् अत्रणाङ्गत्वम्, 'दर्श-पौर्णमासाभ्यामिष्ट्वा सोमेन यजेते'तिक्त कालसंयोगपरत्वात् तस्य । अत एव जन्मान्तरीयोऽप्ययमुपयुज्यते, ज्ञानप्रतिवन्धकदुरितनिवृत्तिद्वारनिष्पत्तः। अत एव जनकादीनामपि ज्ञानश्रवणम् , 'यद्यातुः स्याद् मनसा याचा च सन्न्यसेत्' इत्यापरसन्न्यासविधानं च, स्वस्था-ऽऽतुरसन्न्यासयोरेककर्मत्वेऽप्येकवाल्पाङ्गताया अन्यत्र सर्वाङ्गतायाश्चोपपत्तेः, नित्येषु शक्त्यपेक्षया तथात्वादिति चेत् !
अन्नाहु-फलववेन नितिश्रवणसंनिधावफलस्य श्रुतत्वात् संन्यासस्य श्रवणाङ्गत्वम् , उपकार्योपकारकोभयाकाङ्क्षारूपस्यात्मप्रकरणान्यस्य प्रकरणस्याङ्गत्वावेदकत्वात् , प्रयाजादीनामिव । एवमप्यार्थवादिकफलकल्पने प्रवाजादीनामपि 'कम वै वद्यनस्य' इत्यार्थबादिकफलकल्पनाप्रसङ्गात् । किञ्च संन्यासस्य फलकल्पने[s]फल[स]वलान्यतराकाङ्क्षा, अङ्गत्वकल्पने तूमयाकाक्षेति श्रुतिलिङ्गेत्यादिन्यायादुभयाफाक्षारूपप्रकरणस्यान्यतराकांक्षारूपस्थानात चलवत्वात् श्रवणांगत्वमेव, फलश्रुतेस्र्थवादत्वात् ।।
[संन्यास अधिकारिविशेषण माना जाय या नहीं ? ) श्रवणादि अधिकारी की चर्चा होने पर यह प्रश्न प्रसङ्ग से ऊठता है कि 'शान्तो वान्त उपरत' इत्याविवचन द्वारा पुरुष के विशेषणरूप में सम-बम और उपरति थानी संन्यास-निदिष्ट है, अतः संन्यास भी अधिकारी का विशेषण होना चाहिये। किन्तु यह संम्भव नहीं है, क्योंकि संन्यास श्रवण का अंग न होकर श्रवणाधिकारी का विशेषण नहीं हो सकता, क्योंकि संन्यास विहित है, जो विहित होता है वह अन्य विहित का अंग हुये विना उसके अधिकारी का विशेषण नहीं होता। श्रवणादि के अंगरूप में भी संन्यास को श्रवणाधिकारी का विशेषण नहीं माना जा सकता, पयोंकि 'संन्यास श्रवण का अङ्ग है, इस बात में श्रुति आदि कोई प्रमाण नहीं है। प्रकरण से भी संन्यास को अषण का अंग नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रकरण से आत्मा का संनिधान है, श्रवण का नहीं। दूसरी बात यह कि संन्यास को श्रवण का अङ्ग माना जाएगा तो इस पक्ष में विनिगमना न होने से विपरीत पक्ष- श्रवण संन्यास का अंग है '-को उद्भावना हो सकती है, क्योंकि दोनों ही पक्ष में फलसम्बन्ध में कोई विशेष अन्तर नहीं है, अत एव दोनों में समान प्राधान्य हो सकता है।
[संन्यास श्रवणादि का अंग नहीं हो सकता ] इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि 'शान्तो दान्त' इत्यादि वचन में उपरतिपद से अभिहित संन्यास और शान्ति प्रादि पद से उपस्थित शान्त्याविवत्पुरुषकर्तृक विचार के समुच्चय का विधान होता है, क्योंकि जैसे जुहू (=काष्ठनिमित्त यज्ञीयपात्रविशेष) में क्रतु-यज्ञ का अव्यभिचार होने से जैसे जुहुपद से कतु की उपस्थिति होती है उसी प्रकार शान्ति प्रादि में विचार का अव्यभिचार होने से शान्ति आदि पद से शान्त्यादिवतकर्तृक विचार की उपस्थिति होती है। यदि ऐसा न माना जायगा तो ज्ञान फल होने से विधि का विषय नहीं हो सकता। प्रतः ज्ञानरूप फल के उद्देश से शान्ति आदि अनेक गुणों का विधान मानने पर वाक्यमेव की प्रसक्ति होगी। प्रत: संन्यास ज्ञान का हो अंग है-श्रवणादि का नहीं।