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शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०२
प्रति वर्गकामाग्निहोत्रवाक्यं प्रवर्तते, अङ्गविकलस्याप्यधिकारापन्या । तियंगधिकरणविरोधात् । तशा न प्रकृते पगहाउपमर्थमातरं प्रति 'प्रव्रजेत्' इति पूर्ववाक्यस्याङ्गवाक्यै क्याक्यतापत्रस्याऽप्रवृत्तेः 'यद्यातुर' इति वाक्यमङ्गाऽसमर्थस्यातुरपदवाच्यस्य संन्यासकर्तध्यताविधायक, तद्विधिसामदेिव चाङ्गाभावः । न ह्य तावता स एव संन्यास आतुरस्य विधीयते, 'वाचा मनसा वा' इत्यस्यापि विधेयस्य दर्शनात् । न चार्थप्राप्तानुवादः, अर्थप्राप्त्यपेक्षया श्रुतेः प्रयलत्वात, इति प्राप्ते संन्यासेऽनेकविधानस्याऽशक्यत्वात् संन्यासान्तरं विधीयते । तस्य चातुर. स्वसामर्थ्यविरोधाद् न प्रकरणेन वाक्येन वा श्रवणसंवन्ध इति फलाकाक्षायां पापक्षयः फलं कल्प्यते, "संन्यासेन द्विजन्मनाम्" इत्यादिस्मृतेः । यदि तु संन्यासं कृत्वा जीवितस्तदा श्रवणाधिकारिविशेषणत्वबोधवाक्यप्रकरणबाधकं सामर्थ्यमपगतम् , इत्यधिकारिविशेषेणत्वमेव संन्यासस्य भवति ।
[यद्यातुर० वाक्य से विहित संन्यास में अन्य मत ] अपर विद्वानों का कहना है -'यस्याहिताग्निः०' इत्यादि वचन जैसे 'गहदाहरूप निमित्त उपस्थित होने पर ग्राहिताग्नि के लिये क्षामवान्' संज्ञक अग्नि उद्देश्य से आठ क.पालों के निर्वाप' का विधान करता है, उसी प्रकार यदि 'पदहरेव०' यह वचन वैराग्यरूपनिमित्त उपस्थित होने पर संन्यास का विधायक होगा तो इस नैमित्तिक विधान से ही संन्यास के अंगों के सम्पादन में असमर्थ आतुर को निरंगसंन्यास को प्राप्ति हो जायगी। अतः आतुर संन्याप्त बोधक अचन व्यर्थ होगा। क्योंकि यावज्जीवरूप निमित्त से विहित अग्निहोत्र के समस्त मङ्गों के सम्पादन में असमर्थ पुरुष के प्रति श्रमसाध्य अजों में प्रभावबोधन के लिये अग्निहोत्र के विधायक नये वचन की अपेक्षा नहीं होती । क्योंकि 'यथाशक्ति न्याय' से कतिपय अङ्गविकल अग्निहोत्र यावत् जीवनिमित्तक अग्निहोत्रविधायक वचन से ही सिद्ध हो जाता है ।
यदि 'यदहरेव०' यह वचन संन्यासफल के इच्छुक : विरक्त अधिकारी के लिये संन्यास का विधायक होगा तो अङ्गवाक्यों के पालोचन से अङ्गों के अनुष्ठान में समर्थ पुरुष के प्रति ही उक्त वाक्य की प्रवृति होगी। क्योंकि स्वर्गकाम के लिए अग्निहोत्र का विधायकवाक्य अग्निहोत्र के अंगों के अनुष्ठान में असमर्थ पुरुष के प्रति नहीं प्रवृत्त होता। क्योंकि प्रगविकल को भी अग्निहोत्र के अधिकार की प्राप्ति होने से मोमांसा के कर्माधिकारनिर्णायक तिर्यगधिकरण का विरोध होगा। क्योंकि उस अधिकरण में यह बताया गया है कि जैसे अध्ययनादि में असमर्थ होने से तियंग्योदि के जीव वैदिक कर्मों में अधिकृत नहीं होते हैं उसी प्रकार जो व्यक्ति सर्वानासमेत जिस कर्म के अनुष्ठान में असमर्थ है उसका उस कर्म में अधिकार नहीं होता। फलतः प्रकृति में भी संन्यास के अङगों के निर्वाह में असमर्थ आतुर के प्रति अङ्गबोधक वाक्यों के साथ एकवाक्यतापन होने के कारण संन्यास विधायक 'प्रव्रजेत्' शब्द से घटित पूर्वयाक्य की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अतः पातुरसंन्यासबोधक वाक्य आतुरपदवाच्य संन्यास के अङ्गों के पालन में असमर्थ पुरुष के लिये संन्यास का विधायक होगा। और उस विधि के बल से हो उस पुरुष के