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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
संन्यासश्रमों के अनुष्ठानाभाव भी सिद्ध होगा। इससे सिद्ध है कि प्रातुर के लिये विहित संन्यास घही संन्यास नहीं है जो संन्यातफलेच्छ विरक्ताधिकारी के लिये उक्त विरक्त प्रवजयावावय से विहित है। क्योंकि प्रातुरसंन्यास बोधक धाक्य में संन्यास के विशेषणरूप में वाणी और मन की भी विधेय रूप में उपलब्धि होती है।
[ वाणी और मन अर्थतः प्राप्त होने की शंका और उत्तर] यदि यह कहा जाय फि-"संन्यास के साथ पाणी और मन अर्थतः प्राप्त है और उक्त वाक्य में तो उसका अनुवाद मात्र है"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थ प्राप्ति की अपेक्ष होती है। अतः आतुरसंन्यास वावय में जब वाणी और मन का विधेयरूप में शब्दशः उल्लेख है तो उसे अर्थतः प्राप्त वाणी और मन का अनुवाद कहना उचित नहीं है। अतः बास्यभेद के भय से प्राप्त संन्यास में अनेकगुण का विधान अशक्य होने से आतुर संन्यासवाषय से अन्यसंन्यास का विधान ही मानना उचित है । अतः पातुरत्वरूप सामर्थ्य के विरोध से प्रकरण अथवा वाक्य द्वारा श्रवणादि के साथ उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता । वयोंकि यदि वह श्रवणादि का अङ्ग होता तो आतुर के लिये उसका विधान ही असङ्गत होगा। क्योंकि उस पक्ष में श्रवणादि होने पर ही उस संन्यास की फलवत्ता होगी और पातुर व्यत्ति श्रवणादि सम्पादन कर नहीं सकता। अतः पातुरवाषय से विहितसंन्यास जब श्रवणादि से असम्बद्ध यदि एक अलग ही संन्यास है लब ३
तब उसके फल की आकांक्षा होने पर यही मानना उचित है कि इस संन्यास का फल है पापक्षय, क्योंकि 'संन्यासेन द्विजन्मनां' इत्यादि श्रुति वचन में संन्यास से द्विजामा के पापक्षय का अभिधान है। इस संन्यास के सम्बन्ध में यह विशेषतः ज्ञातव्य है कि यदि कोई मनुष्य प्रातुर संन्यास लेने के बाद जीवित रह आता है तब याश्य एवं प्रकरण द्वारा आतुर संन्यास में श्रवणाधिकारी को विशेषणता के बोध फा बाधक प्रातुरत्वरूप सामर्थ्य निवृत्त हो जाता है। अतः उस स्थिति में संन्यास श्रवणाधिकारी का विशेषण होता ही है ।
ब्रह्मलोका दिगमनं तु न सन्न्यासफलम्, 'सन्न्यासाद् ब्रह्मणः स्थानम्' इत्यादेशलोकान्तभोगाऽविरक्तसन्न्यासविषयत्वात् , 'प्राप्य पुण्यकृतान्' इत्याधुक्तस्य सन्न्यासपूर्वकानुष्ठितश्रवणादिसामथ्र्योबुद्धपूर्वशुभकर्मफलत्वात् । अत एव तदभावे "अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्" इत्युक्तेरातुरस्यापि सर्वतो विरक्तस्य तुल्यन्यायतया कदाचित तत्सामोबुद्धपूर्वशुभकर्मफलानि मुक्त्या पुनर्जातस्य श्रवणादिना शीघ्रमुक्तिरेव । अन्यथा श्रवणार्थसन्न्यासिनो देवादक श्रवणाद् मृतस्य नान्तरीयकफलाङ्गीकारे च सन्न्यासिनो वैराग्यात् प्रकृतौ लय इत्यस्यापि प्रसङ्गात् , परिपक्कयोगस्यापि तत्प्रसङ्गाच्च । तत् सिद्धं सन्न्यासः श्रवणार्थ एवेति । ततश्च सिद्धं-साधनचतुष्टयसंपन्नः श्रवणाधिकारी श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं गुरुमनुसृतः श्रवणादि संपादयति ।
[ ब्रह्मलोक प्राप्ति आदि संन्यास का फल नहीं है ] 'वेदान्त विज्ञान०' इत्यादि वाक्य से जो संन्यास से ब्रह्मलोकगमन की बात कही गयी है