________________
स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
ब्रह्मलोकगमनफलकता में पर्धयतित हो जाता है, और इस बबन को आतुरसंन्यासविषयक मानना हो उचित है, क्योंकि जिस का योग परिपक्व है उसका ब्रह्मलोक में गमन नहीं होता?
[ प्राप्य पुण्यकृतान । इस वचन का विषय कौन ? ] यदि यह कहा जाय कि-"प्राप्य पुण्य कृतान लोकान् इत्यादि वचन आतुरसंन्यासविषयक हैं, अत: उक्त श्रुतिवचन 'नष्टाश्वदग्धरथ याय' से आलुस्संन्यासविषयक नहीं हो सकता ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'योगात् चलितमनसः' इत्यादि वचनों से यह बात है कि 'प्राप्य पुण्यकृतान् इस वचन का विषय बह व्यक्ति है जिसने श्रवणादि या उपक्रम कर दिया है. किन्तु अदृष्टयश जस पद से च्युत हो गया है, अतः इसमें 'भातुरसंन्यासविषयकत्व सिद्ध नहीं हो सकता'-यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'कृतपाप संन्यासी उक्त वचन का विषय है-श्योंकि उस वाक्य में ब्रह्मलोक प्राप्त संन्यासी के लिये वहीं से मोभलाभ का शब्द से अभिधान किया गया है जो इत्तपाप के लिये सम्भव नहीं है। अतः वस्तुस्थिति यह है कि जो साधनचतुष्टय से सम्पन्न होता है और श्रवणादि से जिसे प्रात्मबोध उत्पन्न हो जाता है किन्त अपरिपक्व होता है वह 'प्राप्य पुण्यकता का विषय है और जो शमादि से लम्पन्न नहीं होता, श्रवणादि न कर सकने से जिस को आत्मबोध उत्पन्न हुन्ना नहीं होता, ऐसा आतुर पुरुष, ब्रह्मलोकगमन को संन्यास का फल बताने वाले बचन का विषय है । किन्तु जिसका योग परिपक्व हो चुका है ऐसा व्यक्ति उन दोनों में से किसी भी धचन का विषय नहीं है।
[ स्मृति से आतुर संघारफल का निर्णय ] इस संदर्भ में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि 'वेदान्तविज्ञान०' इत्यादि वचन का निर्गुणब्रह्मपरक इस प्रकार व्याख्यान किया जाय कि 'वेदान्त के श्रवणादि से जिसे निगुणब्रह्म का निश्चय हो चुका है ऐसे शुद्ध चित्त बाले पति संन्यासयोग से ब्रह्मलोक में जाते हैं और वहीं से मुक्त हो जाते हैं'-तब यह कहना कठीन होगा कि उक्त वचन आतुरसंन्यासविषयक है । अतः उस स्थिति में
सके फल का निर्णय इस आशय की स्मति से करना होगा कि जो व्यक्ति प्राण कण्ठगत होने पर भी 'संन्यस्तं०'='मैंने संन्यास ले लिया इस प्रकार क्षतः मी संन्यासहण कर लेता है वह अक्षय भोग को प्राप्त करता है और उस का पुनर्जन्म नहीं होता। इस श्रुति के अनुसार आतुरसंन्यासी ब्रह्मलोक में जाता है और वहीं उसे उपदेश से ब्रह्मज्ञान का उदय होकर मुक्ति होती है । अतः आतुरसंन्यासबोधक विधिवाक्य को अर्थकल्पना इस प्रकार होती है कि 'उपदेश द्वारा मुक्ति के साधन ब्रह्मलोक में जाने की वांछावाला पुरुष प्रातुरसंन्यास ग्रहण करें।'
अपरे तु-'यदहरेव बिरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्' इतिवाक्यं 'यस्याहिताग्नेग हानग्निदहेत् सोऽग्नये क्षामवतेऽष्टाकपालं निवपेत्' इतिवद् यदि पैराग्यनिमित्ते संन्यासविधायकम्, सदा निमिसे विधानादेवा ध्वसमर्थस्यातुरस्य निरङ्गासंन्यासप्राप्तेः 'यद्यातुर०' इत्यादेव्यर्थत्वाप(त्ते )चिः । नहि यावजीवनिमित्ते विहितस्याग्निहोत्रस्याऽसमर्थ प्रत्यङ्गामावबोधकं वचनान्तरमपेक्षितम् , यथाशक्तिन्यायेनैव सिद्धः। यदि च विरक्तस्याधिकारिणणस्तरफलकामस्य संन्यासविधायकम् , तदाङ्गवाक्यपालोचनयाङ्गेषु समर्थ प्रत्येवोक्तवाक्यप्रवृत्तिः । न ह्यङ्गेष्वसमर्थ