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[शास्त्रवा० स्त०८ श्लो०२
नहीं होतो तो यज्ञदानादि का यथापेक्ष समुच्चय अपेक्षणीय होता है। इस धाश्य में सम्भवत् समुच्चय होने से हो यज्ञ के अधिकारी ब्रह्मचारियों को केवल वेवानुवचन से ही अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा विविदिषा को सिद्धि होती है । स्मति भी इस बात में साक्षी है जैसा कि 'अपेनैव तु संसिध्येत्' इत्यादि अनेक स्मृति वाक्य स्पष्ट उघोष करते हैं कि ( ब्रह्मचारी प्रावि ) मन्त्रजप से ही संसिद्धि प्राप्त कर । स्वर्गकामो के लिये अग्निहोत्र के समान विविविषाकामी के लिये यज्ञादि के प्राजीवन अनुष्ठान का नियम नहीं है। क्योंकि उसका अनुष्ठान अन्तःकरणशुद्धिपर्यन्त ही अपेक्षित है और अन्तःकरणशुद्धि साधनचतुष्टय की प्राप्ति से विदित होती है।
यदि वा, 'जातपुत्रः कृष्णकेशोऽग्नीनादधीत' इत्यत्राधाने जातपुत्रकृष्णकेशत्वविधाने वाक्यभेदात् ताभ्यामवस्थाविशेषलक्षणवदत्र यत्रादिपदेः प्रसिद्धं कर्मसामान्यमुपलक्ष्य विविदिषादिफलोद्देशेन विधीयते । सम्भवति चैवं संभवत्समुच्चयः, न च वाक्यमेदः । लक्षणापि दोष एवेति चेत् ? तथापि वाक्यार्थभेदे प्रधानविशिष्टवाक्यार्थभङ्गः, लक्षणायां तु गुणीभूत पदशक्यार्थत्यागमात्रम् इत्यत्रादरः । अत एव 'अर्धमन्तर्वेदि मिनोति, अर्घ च बहिर्वेदि' इत्यत्रापि वास्योदो मा विरगन्तशिशिदिशब्दाभ्यां देशविशेषलक्षणाश्रयणम् इत्यपरे । यद्वा, ईश्वरार्पणबुद्धथानुष्ठितानां कर्मणामन्तःकरण शुद्धिः फलम्, 'यत् करोषि०' इत्यादिस्मृतेः । तत् सिद्धमेतत्-कर्मभिः शुद्धान्तःकरणो नित्यानित्यविवेकादि लमत इति ।
तत्र नित्यानित्यविवेकः 'इदं सर्वमनित्यम्, एतस्याधिष्ठान किश्चित् नित्यम्' इत्येवमालोचनात्मकः । तत ऐहिकपारलौकिकफलेच्छाविरोधिचेतोवृत्तिविशेषात्मको विरागः, ततः शमादिषट्कम् । तच्च शम-दमोपरति-तितिक्षा समाधान-श्रद्धाः। अन्तःकरणनिग्रहः शमः | बाह्य न्द्रियनिग्रहो दमः। उपरतिः सन्यासः । द्वन्द्वसहिष्णुत्वं तितिक्षा । श्रवणादिप्रावण्य समाधानम् । सांप्रदायिक विश्वासः श्रद्धा । ततो मोक्षेच्छा मुमुक्षा । तदेतत् साधनचतुष्टयं श्रवणाधिकारिविशेषणम् ।।
[सम्भवत्समुच्चय की दूसरे प्रकार से उपपत्ति ] अयया अपर विद्वानों का इस सम्बन्ध में यह मत है कि जिस प्रकार 'आतपुत्रः कृष्णकेशोनीनादधीत "जिसे पुत्र उत्पन्न हो चका हो और जिस के केश काले हो यह अग्नि का आधान करे।' इस वाक्य से प्राधान में जातपुत्रत्व और कृष्णकेशत्व का विधान मानने पर वापयभेद होता है, प्रत: जातपुत्र और कृष्णकेश इन दोनों पदों से लक्षणा द्वारा अवस्थाविशेष-युवावस्था का बोध मानकर आधान में उस अवस्था का विधान होता है। उसी प्रकार विविदिषा वाग्य में भी यज्ञादिपदों से लक्षणा द्वारा प्रसिद्ध कमसामान्य का बोध मानकर विविदिषारूप फल के उद्देश्य से कर्मसामान्य का विधान होता है। ऐसा मानने पर सम्भवत्समुच्चय भी हो सकता है और वाषयभेद भी नहीं होता। यद्यपि ऐसा मानने में लक्षणारूप दोष होता है, तथापि वाययार्थभेद होने पर वाक्य के विशिष्ट अर्थ-प्रधान अर्थ का भङ्ग होता है जब कि लक्षणा मानने पर पद के शवयार्थ अप्रधान