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स्था०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
कथं तहि समुच्चयः ? इति चेत् ? भिन्नवाक्यविहितानामपि सोमप्राप्त्यर्थानां क्रयाणामित्र संभवत्समुच्चयो, यज्ञादीनां नित्यवत्समुच्चये हि क्रयाणां प्रत्येकविधिषु नियमत्रिधित्वं न स्यात् , आर्थिकी हि तत्रेतरनिवृत्तिः, अरुणाऽक्रयेणेव सोमं भावयेदिति । संभवत्समुच्चये तु सोमप्राप्त्यर्थत्वात् क्रयाणां तत्रानतिद्वारस्यकैनै सिद्धौ न नियमभङ्गः । असिद्धौ तु प्रत्येकावगत नियमं मार्माधेिर गरिर मुखर बावन्तरविहितकयसापेवत्वं पूर्वक्रयस्य कल्प्यते । अत एव
ध्यादिषु नासौ, होमनिष्पत्तेद्वारस्यकेनव सिद्धेः। एवमिहापि यज्ञादिनै केनैवान्तःकरणशुद्धिद्वारसिद्धौ नान्यापेक्षा, अन्यथा तु स्यादेव । अत एव यज्ञानधिकारिणां ब्रह्मचारिणां वेदानुवचनेन केवलेनाप्यन्तःकरण शुद्धिद्वारा विविदिषासिद्धिः । तथा व स्मृतिः-"जपेनष तु संसियेत्" इत्यादि । न च स्वर्गकामाग्निहोत्रवत् सदनुष्ठाननियमा, सदनुष्ठानस्य साधनचतुष्टयसंपत्तिगम्यान्तःकरणशुद्धिपर्यन्तत्वात् ।।
[ यज्ञदानादि का यथासम्भव समुच्चय ] विविदिषा का उक्तरीति से अर्थ वर्णन करने पर यह प्रश्न हो सकता है कि जब यज्ञदानादि का विविदिषायशात् पृथक २ सम्बन्धबोध होगा तो विविदिषा के उद्देश्य से एक व्यक्ति के द्वारा यज्ञवानादि के समुच्चय को कर्तव्यता कैसे होगी ? किन्तु इसका उत्तर यह है कि जैसे सोमप्राप्ति के उद्देश्य से विभिन्न वाक्यों से विहित कयों में सम्भवत्समुच्चय अर्थात् यथासम्भव समुच्चय होता है उसी प्रकार विविदिषा के लिये यज्ञदानादि का भी सम्भवत्समुच्चय होता है। स्पष्ट है कि क्रयवाक्य में भी सम्भवत्समुश्चय ही होता है नित्यरसमुरघय अर्थात-अनिवार्य समुच्चय नहीं होता, क्योंकि अनिवार्य समुच्चय मानने पर 'अरुणया सोम कोणाति' इत्यादि प्रत्येक विधि में नियमविधित्व न हो सकेगा। क्योंकि नियमविधि में इतर की निवृत्ति प्राथिक-प्रथंगम्य होती है। अर्थात् नि-मविधि इतरनिवृत्ति में पर्यवसित होती है, प्रतः प्रत्येक विधि को नियमविधि मानने पर कविधायकवाय का 'अरुणाव से ही सोम को प्राप्त करें इस प्रकार अर्थ होगा जो नित्यवत्समुच्चय पक्ष में सङ्गत नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष में अरुणाक्रयण-एकहायनीकयण, गोक्रयण सब का समुच्चय सोमप्राप्ति के लिये अपेक्षित होगा। किन्तु सम्भवत्समुच्चय पक्ष में समुच्चय अनिवार्य न होने से सोमप्राप्ति के लिये विहित कयों में किसी एक क्रय से भी अनतिद्वार-बहारनिरपेक्ष सोम की सिद्धि होने से नियमभङ्ग नहीं होता। किन्तु जब एक क्रय से सोम को प्राप्ति नहीं होतो तब प्रत्येक विधि वाक्य से अवगत नियम का कार्यानुरोध से परित्याग कर पूर्वक्रय में अरुणादिक्रय में एकहायन्यादि वाक्यान्तर विहित क्रय की सापेक्षता की कल्पना की जाती है। तदनुसार सोमार्थी को कभी मयसमुच्चय अपेक्षणीय होता है। होम को उद्देश्य कर विहित दधि आदि द्रव्यात्मक गुणों में परस्पर सापेक्षता की कल्पना नहीं होती क्योंकि किसी एक द्रव्य से ही होमनिष्पत्तिरूप द्वार की सिद्धि हो जाती है।
[सम्भवत्सगुच्चय का स्पष्टीकरण ] इसी प्रकार विविदिषा वाक्य के अनुसार यज्ञादि किसी एक से ही अन्तःकरणशुद्धिरूप द्वार की सिद्धि हो जाने से अन्य की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु यदि किसी एक से अन्तःकरण की शुद्धि