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[ शास्त्रवार्ता. स्त०८ श्लो०२
असंभव और विधायकत्व के अनडीफार से अशक्य है। प्रतः उक्तवाक्य के समान भी इस वाक्य में
प्रता नहीं हो सकती। एवं प्रकृतवाक्य में यज्ञदानादि अनेक कर्मों को उद्देश्य कर विविदिषारूप फल के सम्बन्ध का मिशाल मानना नहीं है. क्योंकि ऐसा मानने पर उसी प्रकार वाक्य भेद होगा जसे एकत्व और ग्रह को उद्देश्य कर संमार्ग का विधान करने पर ग्रह समाष्टि' इस वाक्य में होता है। इसी प्रकार विविविषारूप फल को उद्देश्य कर यज्ञदानादि कर्मों का विधान करने पर भी ठीक उसी प्रकार वाफ्यभेद होगा जैसे ग्रह को उद्देश्य कर एकत्व और संमार्ग का विधान मानने पर 'ग्रहं समाष्टि' इस वाक्य में होता है।
'दर्श-पौर्णभासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत' इत्यत्रै कस्वर्णोद्द शेन दर्श-पौर्णमासात्मकानेकयागविधानबदन विविदिपोद्देशेन यज्ञदानाद्यनेकविधानं किं न स्यात् । इति चेत् ? न, तत्र 'बीहिभिर्यजेत' इत्यत्र वीहीणामिव पण्णामपि यागानां यजतिसमानाधिकरणकपदोपात्तत्वेन वाक्यमेदाभावेऽपि प्रकृते 'यक्षेन' 'दानेन' इत्यादौ तदभावान । तेनैकस्य श्रोतव्यादिवाक्येष्वनुपङ्गपदेकस्य विविदिषन्तिपदस्यानुषङ्गः कल्प्यः- 'यज्ञेन विविदिन्ति'-'दानेन विविदिषन्ति' इति ।
यज्ञदानादि अनेक कर्म विधान में वाक्यभेद प्रसक्ति ] ___यदि यह कहा जाय कि जैसे 'दर्शपूर्णमासाम्यो स्वर्गकामो यजेत' इस वाक्य से एक स्वर्ग को उद्देश्य कर वर्श और पूर्णमासस्वरूप अनेक माग का विधान होता है उसी प्रकार 'तमेतं०' इत्यादि वाक्य से भी विविविषा को उद्देश्य फर यज्ञदानादि अनेक कर्मों का विधान क्यों नहीं हो सकता?" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दर्शादि वाक्यों में वर्श और पूर्णमास रूप छः याग 'यजति' यज धातु के समानाधिकरण दर्शपूर्णमासरूप एफ समस्तपद से गहीत होते हैं । अतः एक स्वर्ग के उद्देश्य से छः याग का विधान मानने पर भी उक्त वाक्य में वाक्यमेद उसीप्रकार नहीं होता जैसे “वीहिभिर्यजेत" इस वाक्य में एक याग को उद्दश्य कर यज़ धातु से समभिव्याहुत वीहि पद से गृहीत अनेक व्रीहि का विधान करने पर नहीं होता। किन्तु प्रकृत में 'यज्ञेन यानेन' इत्यादि शब्द से घटित 'तमेत०' इत्यादि वाक्य में यज्ञदानादि का यज् धातु समानाधिकरण एक पद से ग्रहण नहीं है । अतः श्रोतव्यादि-'आत्मा वा अरे ! इष्टव्यः श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यः' - मुमुक्षु को आत्मा का श्रवण-अर्थात् अद्वितीय आत्मा में समस्तवेदान्त वाक्यों के तात्पर्य का निर्णय करना चाहिये, फिर उस निर्णीत प्रर्थ की मनन यानी अनुमान द्वारा पुष्टि करनी चाहिये, उस के बाद वेदान्त से निर्णीत और अनुमान से परिपुष्ट द्वितीय आत्मा का निदिध्यासन = अनवरतध्यान करना चाहिये, उसके बाद आत्मा का साक्षात्कार करना चाहिये।'-इस वाक्य में जैसे एक 'आत्मा' का 'आत्मा श्रोतव्यः' 'मात्मा मन्तव्यः' इत्यादि रूप में अनुषङ्ग होता है उसोप्रकार 'तमेतं.' इत्यादि विविदिषा वाषय में 'विविदिषन्ति' इस एक पद का 'यजेन दानेन' इत्यादि पदों के साथ 'यज्ञेन विविविषन्ति' 'दानेन विविदिन्ति' इसप्रकार अनुषङ्ग करना प्राधश्यक है। अत: इस वाक्य के विविदिषा रूप एक उद्देश्य में यज्ञदानादि अनेक का विधान मानने पर ग्रह को उद्देश्य कर एकत्व और संमार्ग का विधान करने पर 'ग्रह समाष्टि' इस वावय के समान वाक्यभेद अनिवार्य होगा। परन्तु जब इस वाक्य को विधायक नहीं माना जाता तो विधायक वाक्यों में सम्भावित वाक्यभेद के समान वाक्यभेद की प्रसक्ति नहीं होती और 'अग्निहोत्रं जुहोति' के समान प्रर्थक्यमूलक एकवाक्यत्व अक्षुण्ण रहता है।