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[ शास्त्रवा०ि स्त० ८ श्लो०१०
भूत कर्मों के क्षयोपशमविशेष से कहों पर विज्ञान किसी विषय में स्पट होता है, और जिस विषय में उक्त क्षयोपशम का विषय है उस विषय में अस्पष्ट होता है। क्योंकि अनमानादि के विष से अधिक नियतवर्ण और संस्थानादि द्वारा वस्तु के विशेष प्रकाशन को ही स्पष्टता कहा जाता है। जैसा कि एक कारिका में बताया गया है कि अनुमानावि से अगृहीतरूप ही वस्तु का विशेष रूप है उस रूप से वस्तु को ग्रहण करना ही बुद्धि का वंशय है। और ऐसे रूप से वस्तु को ग्रहण न करता हो बुद्धि का अवैशध है। स्पष्टता के इस निर्वचन के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान ही स्पष्ट ज्ञान होता है और उसका विषय होने से हो वस्तु में स्पष्टता कर व्यवहार होता है। कुछ लोगों ने स्पष्टता का निर्वचन इस प्रकार किया है कि प्रतीत्यन्तर के व्यवधान के विना जो वस्तुस्वरूप का प्रकाशन है वही स्पष्टता है, जैसे, अबधि मनःपर्याय और केवलज्ञान किसी अन्य प्रतीति के व्यवधान दिना वस्तु का विशेषरूप से प्रकाशक होता है किन्तु देवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक के दूसरे परिच्छेद में स्पष्टता की इस परिभाषा का यह कहकर खन किया है कि द्वाविज्ञान भी अंशत: स्पष्ट होता इस परिभाषा के अनुसार उसमें स्पष्टता को अनुषपत्ति होगी क्योंकि वह संशयादिपूर्वक होने से प्रतोत्यन्तर के व्यवधान द्वारा ही वस्तुस्वरूप का ग्राहक होता है। इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वमस्यादि वाक्य से होने वाला आत्मज्ञान कथमपि अपरोक्ष नहीं हो सकता क्योंकि वह अस्पष्ट होता है। अत: केवलजानरूप सर्व विषयक प्रत्यक्षात्मक प्रात्मदर्शन हो मुमुक्षु के लिये अभिमत है।
इस ज्ञान में श्रवण का उपयोग ज्ञान-विज्ञानादिकम से मनन और अनुध्यान कम से होता है। इसीलिये चारित्ररूप उपरति पदार्थ श्रवण का अंग नहीं होगा क्योंकि श्रवण ही चारित्र का उपकारक-अङ्ग होता है। ऐसा मानने से ही जस ग्रन्थ में श्रवण में बताये गये गृहस्थ और स्त्रीवर्ग के अधिकार की संगति होती है। श्रवणादि की विधि मुक्ति के लिये ही है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि को अधिकारी मानकर सभी कर्मों का मोक्ष के लिये ही विधान है। विधान के सामर्थ्य से ही ऐहलौकिक और पारलौकिक प्रों के निषेध अर्थात् उन अर्थों में वैराग्य को अवगति होती है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि जो मुक्ति का परम्परया कारण होने से विहित होता है वह प्रान्तरालिक कारण का उपस्थापक होकर ही मुक्ति का जनक होता है। अतः आत्मश्रवण आत्मदर्शन का हेतु क्यों नहीं होगा? अर्थात् प्रात्मश्रवण आत्मदर्शन का हेतु होमा न्यायसंगत ही है। और यह भी ज्ञातव्य है कि यतः आत्मश्रवण उपकारी-पारम्परिक कारण है अतः प्रत्येकबुद्ध (उपदेश के चिना भी चारित्रग्रहण में समर्थ पुरुषों) को श्रयण के बिना भी ज्ञान की अनुपपत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि उन्हें भी पूर्वजन्म का श्रवणादि सम्पन्न रहता है अतः आत्म श्रवण सभी के लिये आत्मदर्शनोपयोगी है-तो यह उचित नहीं है क्योंकि मरवेधी आदि जिन्हें प्रथम मनुष्यजन्म में ही आत्मदर्शन द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हो गयी उनमें पूर्वजन्म के श्रवणादि की कल्पना सम्भव नहीं है। इस विषय में सिद्धान्त का सारतस्थ विस्तार से अन्यत्र वणित है ।
अपि च स्वमतेऽपि परस्य श्रवणादिजन्यप्रतिबन्धकादृष्टनिवृत्तिरूपनिदोषत्वमहिमा न शब्दात् शुद्धब्रह्मवोधे हेतुः, उत्पत्तौ प्रामाण्यस्य म्यतस्त्वभङ्गापत्तेः । ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यत्वं हि तत्, न चोक्तार्थवाक्यार्थप्रमाया निर्दोषत्वजन्यत्वे युज्यत एतत् । श्रवणादेः प्रतिवन्धकनिवर्तकस्वात् , प्रतिवन्धकाभावस्य च तुच्छतया हेतुत्वादेव गेहेनर्दिभिः परै रेतद्