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स्या. क० टीका एवं हिन्दी विवेचन 1
__ यदि यह कहा जाय कि-"स्वविषयावरणनिवर्तकत्वध्यवहारविषयत्व को हेतु मानने पर उक्त दोष नहीं हो सकता, क्योंकि 'प्रमाणज्ञान स्वविषयावरणनिवर्तक होता है-यह व्यवहार लोकसित है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त हेतु सुखादिज्ञान में तथा द्वितीय-तृतीयादि धारावाहिकज्ञान में भी रहता है । अतः उक्तज्ञानों में हेतु में साध्य के व्यभिचार का वारण अशक्य होगा।
दृष्टान्तेऽयि साध्यगतज्ञानविषयतायाः प्रमाविषयवासाधारणवाभावेन साध्यवैकल्यम् । उपाधिश्चात्राऽचेतनत्वादि । न चात्रानुकूलतकोऽपि कश्चिदस्ति, अप्रकाशितार्थप्रकाशकेऽपि प्रकाशितार्थप्रकाशक इवोक्तवस्त्वन्तरपूर्वकत्वं विनापि विषयस्फोरकत्वोपपत्राद्यत्वस्य चाऽनिय. म्यत्वादिति न किश्चिदेतत् ।
[ दृष्टान्त में साध्यासिद्धि दोष ] दृष्टान्त सम्बन्ध में विचार करने पर वह भी असङ्गत प्रतीत होता है क्योंकि साध्य में स्वविषयावरण के गर्भ में स्वविषयता शब्द से ज्ञानविषयता प्रविष्ट है और व
वह प्रमाविषयता साधारण यानो प्रभाविषयता की सधर्मा नहीं है अतः दृष्टान्त में साध्य का प्रभाव है । इन सब दोषों के अतिरिक्त उषत हेतु में अचेतनत्व अथवा प्रमातृवत्तित्त्वाभावरूप उपाधि भी है, क्योंकि दृष्टान्त में जहाँ साध्य सिद्ध है वहां अचेतनत्व विद्यमान होने से वह साध्य का व्यापक है और साधन के प्राश्रयभूतपक्ष में विद्यमान न होने से साधन का प्रध्यापक है । उक्त दोषों के अतिरिक्त उक्तानुमान में अनुकूलतर्क-व्यभिचारशंकानिय तक का सामान भी है। गोंकि जैसे प्रकाशितार्थ प्रकाशक धारावाहिक स्थलीय द्वितीयादिज्ञान उक्त वस्त्वन्तरपूर्वकरव के विना भी अपने विषयस्फुरण का प्रयोजक होता है उसी प्रकार अप्रकाशितार्थ का प्रकाशकलान भो उक्त साध्य के बिना अपने विषय के स्फुरण का प्रयोजक हो सकता है।
यदि यह कहा जाय कि-'आद्यविषयस्फुरणप्रयोजकत्व-अनुकल तर्क हो सकता है। अर्थात् उक्त हेतु में, प्रमारगज्ञान अप्रकाशितार्थ का प्रकाशक हो किन्तु उक्त वस्त्वन्तरपूर्वक न हो इस शंका को निवृत्ति के लिये इस प्रकार तर्क प्रयोग हो सकता है कि प्रमाणज्ञान यदि उक्तवस्त्वन्तरपूर्वक न होता तो अपने विषय का आद्यस्फोरक न हो सकेगा । इस तर्क के निष्कर्षरूप में यह विपरोतानुमान उपलब्ध होगा कि 'यतः प्रमाणज्ञान अपने विषय का आधस्फोक है अतः उक्तवस्त्वन्तर पूर्वक है। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि आयत्यविशिष्ट विषयस्फारकत्व में उक्तस्त्वन्तरपूर्वकत्व की व्याप्ति सिद्ध न होने से उक्त वस्स्वन्टरपूर्वकस्वाभाव में आद्यविषयस्फोरकत्वाभाव का व्याप्तिग्रह न हो सकने से उक्तवस्त्वन्तरपूर्वकस्वाभावरूप आपादक से आधविषयस्फोरकत्वाभाव का प्रापादानरूप तर्क नहीं हो सकता।
एवं च जीवेश्वरादिविभागोऽप्यनुपपन्न एव | न च प्रतिबिम्बवादे आभासयादे वा दृष्टान्तोऽपि दृष्टः, मुखे द्वित्वस्य, आदर्शस्थत्यस्य चानिर्वचनीयस्योत्पत्ती 'आदर्श वें मुखे' इति प्रतीतिप्रसङ्गात् , आदर्श मुखान्तरोत्पत्तौ च तदवेदं मुखं यदादस्थित्वेन दृष्टम्' इति प्रत्यभिज्ञानाबाधात् । अथ प्रतिबिम्बबाद आदर्शस्थत्वस्थ मुखे द्वित्वावच्छेदेनानुत्पत्तेः 'आदर्श द्वे मुखे' इति न प्रतीतिः, आभासवादे च तदेवेदम्' इति भ्रम एवेति चेत् ! न 'आदर्श