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[ शास्त्रयाता० स्त० ८ श्लो०७
मुखप्रतिबिम्बम्' इति प्रतीतिप्रामाण्यात् तत्र प्रतिबिम्बद्रध्यस्येवोत्पत्तेः स्वीकतु युक्तत्वात् , द्वित्वाख्यस्य प्रतिबिम्बस्यादर्शऽभावात् , अनिर्वचनीयमुखोत्पत्तौ च प्रतिविम्यप्रतीतेः प्रामाण्यानुपपत्तः । 'कथं तहि तत्र भ्रमव्यवहारः।' इति चेत् ? विम्ब-प्रतिविम्बायोरमेदप्रतीतेः । अत एवं न 'तदेवेदम्' इति प्रत्यभिज्ञापि दुरुपपादा, प्रतिविम्बाऽभेदभ्रमविषयस्य तदर्थस्येदम भेदावाधादिति अधिकं सांख्यवार्तायां विवेचितम् ।
[जीव ईश्वरादि के विभाग की अनुपपत्ति ] उक्त विचारानुसार जब यह निश्चित हो गया कि अज्ञान प्रसिद्ध है, तो उस के आधार पर जो जीव-ईश्वरादि का विभाग होता है वह भी अनुपपन्न हो है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य हैप्रतिबिम्बबाद और आभासवाद में कोई दृष्टान्त न होने से उन वादों द्वारा भी जोव और ईश्वर का निरूपण नहीं हो सकता । प्रतिबिम्बवाव के सम्बन्ध में जो यह बाहा गया कि-दर्पण में बिम्बभूत मुख से भिन्न प्रतिबिम्बात्मक मुख की उत्पति नहीं होती किन्तु बिम्बभूत मुख में ही अनिर्वचनीय द्वित्व
और अनिर्वचनीय दपरणस्थत्व को उत्पत्ति होती है-वह सङ्कत नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर 'दर्पण में दो मुख हैं। इस प्रकार की प्रतीति को आपत्ति होगी क्योंकि यह प्रतीति मुख में द्वित्व और दर्पणनिष्ठत्व को विषा काली है और रोगों डीई मुख मिजमान है । एवं आभासवाद के सम्बन्ध में जो यह बात कही गयो कि 'आदर्श में बिम्बभूतमुख से भिन्न प्रतिबिम्बात्मक मुख की उत्पत्ति होती है'-यह भी असङ्गत है, क्योंकि आदर्श में अन्यमुख की उत्पत्ति मानने पर जो आदर्श एवं प्रीया दोनों स्थानों में मुखदृष्टा व्यक्ति को यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि 'यह ग्रीवास्थसुख यही है जिसे आदर्श में देखा है। इस प्रत्यभिज्ञा को अनुपपत्ति होगी।
[ आपत्ति और अनुपपत्ति के बचाव की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-'प्रतिबिम्बवाद और प्राभासवाद दोनों ही में कोई दोष नहीं है, जैसे कि-प्रतिबिम्बबाद में जो 'आदर्श में दो मुख हैं। इस प्रतीति की आपत्ति दी गई वह असङ्गत है, क्योंकि यह प्रतीति मुख में द्वित्वावच्छेदेन प्रादर्शनिष्टत्व को विषय करती है किन्तु मुख में प्रादर्शस्थत्व को वित्वावच्छेदेन उत्पत्ति नहीं होती। एवं आभासवाद में जो प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति बतायी गयी वह भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि आभासवाद में उक्त प्रत्यभिज्ञा भ्रमरूप ही मानी जाती है ।"किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'प्रादर्श में प्रतिबिम्बभूत मुख है। यह प्रतीति प्रामाणिक है, अतः इस प्रतीति के अनुरोध से प्रादर्श में प्रतिबिम्ब का अभाव होने से दो मुख हैं। इस प्रतीति की आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु प्राभासवाद के समान आदर्श में अनिर्वचनीयमुख की उत्पत्ति मानना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर प्रतिबिम्ब प्रतीति में लोकसिद्ध प्रामाण्य को उपपत्ति नहीं हो सकेगी। आदर्श में प्रतिबिम्बनामक सत्यमुख की उत्पत्ति और उसकी प्रतीति को प्रमा मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि आदर्श में होने वाली मुखप्रतीति में जो किसी किसी को कभी-कभी भ्रमव्यवहार होता है वह कैसे होगा ?- इसका उत्तर यह है कि बिम्ब और प्रतिबिम्बभूत मुस्थ में अभेदप्रतीति होने से उक्त व्यवहार होता है। इस मान्यता में एक यह भी गुण है कि इस मत में 'सवेवेदम्' यह बहो मुख है जो आदर्श में देखा गया इस प्रत्यभिज्ञा के उपपादन में भी कोई कठिनाई नहीं है क्योंकि