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[ शास्त्रवार्ताः स्त०८ श्लो०७
उससे निवृत्त होता है अतः उपतानुमिति में 'स्वप्रागभाव व्यतिरिक्त स्वनिवर्ण-स्वनिवृत्तिप्रतिबन्धकामावविशिष्ट स्वविषयावरणस्वदेशगत वस्त्वन्तरपूर्वकत्व' है ।"-किन्तु यह कथन भी शक्य नहीं है, क्योंकि पक्षान्तर्गत जिन ज्ञानों के विषयावरण को निवृत्ति का प्रतिबन्धक असिद्ध है उन ज्ञानों में उक्त साध्य को सिद्धि नहीं हो सकती।
हेतोरपि स्वविषयावरणनिवर्तकत्वरूपस्योपादानेऽसिद्धः, अप्रकाशितप्रकाशशब्देन तदुपादानेऽपि तदपरिहारात , न खलु शब्दान्तरोपादानेनाप्याच्छादनं भवति । स्वविषयावरणनिवर्तकत्वव्यपदेशविषयत्वस्य हेतुत्वे तु सुखादिक्षाने द्वितीयादिधारावाहिकेषु च मिथ्याज्ञाननिकतैकत्वव्यपदेशविपयेषु व्यभिचारो दुनिचारः ।
[ अज्ञानसाधक अनुमान में हेतु-असिद्धि ] अज्ञान की सिद्धि के लिये अपेक्षित हेतु के विषय में भी विचार करने पर उक्तानुमान निर्दोष नहीं प्रतीत होता, क्योकि यदि स्वविषयावरणनियतकत्वरूप हेत का उपादान किया जायगा तो पक्ष में हेतु का अभावरूप हेत्वसिद्धि होगी। क्योंकि प्रमाणज्ञान के विषय का कोई ऐसा प्रावरण सिद्ध नहीं है जिसका प्रमाणज्ञान निवर्तक हो। स्वविषयावरणशाद से प्रमाणज्ञान के प्रागभाव को लेकर हेतु-असिद्धि का परिहार नहीं किया जा सकता, ययोंकि प्रागभाव भी सर्वमान्य न होने से विधादग्रस्त है एवं प्रमाणज्ञान के प्रागभाव को नियत्ति प्रमाणज्ञानस्वरूप है, अतः प्रमाणज्ञान में उसकी जनकता सम्भव न होने से स्वागभाव द्वारा स्वविषयावरणनिवर्तकस्वरूप हेतु की सिद्धि सम्भव नहीं हो सकती। मिथ्याज्ञान को भी 'स्वविषयावरण' शब्द से ग्रहण कर हेतु-असिद्धि का परिहार नहीं किया जा सकता क्योंकि मिथ्याज्ञान वस्तु दोषावृत होने से उत्पन्न होता है, अतः मिथ्याज्ञान के लिये प्राधरण अपेक्षित होने से मिच्याजान को विषय का आवारक नहीं कहा जा सकता। जिस दोष से आवत वस्तु में मिथ्याज्ञान होता है, वह दोष स्वविषयावरण अवश्य है किन्तु प्रमाणज्ञान उसका निवर्तक नहीं है, क्योंकि प्रमाणज्ञान को उत्पत्ति उसकी निवृत्ति होने पर होती है । अतः प्रमाणज्ञान में स्थविषयावरणनिवर्तकत्वरूप हेतु की प्रसिद्धि अनिवार्य है।
हेतु अप्रसिद्धि की आपत्ति 'अप्रकाशितार्थ प्रकाश शब्द से हेतु का उपादान करने पर भी दोष का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि उसका यथाश्रुत अर्थ लेने पर ज्ञानविषयत्वरूप प्रकाशितत्व केवलान्य होने से अप्रकाशितार्थ की अप्रसिद्धि होने से हेतु की अप्रसिद्धि होगी। यदि 'स्व के पूर्व स्वाश्रय को अप्रकाशित' यह अर्थ किया जायगा तो धारावाहिक द्वितीयादिजान में व्यभिचार होगा। धोंकि प्रथमज्ञान का पूर्वकाल द्वितीयादि ज्ञान का भी पूर्वकाल है और उस पूर्वकाल में उसका विषयभूत अर्थ उसके आश्रय प्रमाता को अप्रकाशित है। यद्यपि इसका परिहार स्वाट्यवहित पूर्व कह देने से हो सकता है, किन्तु स्वत्व के अननुगत होने से तटित हेतु सर्वपक्षसाधारण न हो सकने से भायाऽसिद्धि होगी । यदि 'अप्रकाशितार्थप्रकाश' शब्द से भी स्वविषयावरणनिवर्तफत्य का ही उपादान किया जायगा तो स्वविषयावरणनिवर्तकत्व से शब्द से उस हेतु का प्रयोग करने पर जो हेतु-असिद्धि बतायी गयी है उसका परिहार न होगा क्योंकि अर्थ में भेद न होने पर केवल शब्द परिवर्तन कर देने से उस अर्य के ग्रहण से प्रसक्त होने वाले दोष का नाच्छादन-निराकरण नहीं होता।