________________
स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
[ महाविद्या का अनुमान दोषपरम्पराग्रस्त-उत्तरपक्ष ) इस अनुमान के विरुद्ध व्याख्याकार श्री यशोविजय उपाध्याय का कहना है कि अनुमान का यह परिष्कृतरूप वेदान्तीओं के अपने गृह के भीतर किये गये विचार का फल है किन्तु अन्य विद्वानों के साथ विचार होने पर यह अनुमान विविध दोषों से ग्रस्त होने के कारण निरस्त हो जाता है।
वह इसलिये कि मूलाज्ञान के रहते हुये भी प्रमाण से घटादिज्ञान उत्पन्न होने पर उसके विषय घटादि का स्फुरण होता है, अतः मूलाज्ञान में स्वविषय आवरण के उक्त निर्वचनानुसार मूलाज्ञान घटादिज्ञान के विषय का आवरण नहीं होता। एवं ब्रह्मज्ञान से ही मूलाज्ञान की निवृत्ति होने से वह घटाविज्ञान से निवर्त्य भी नहीं होता। प्रतः स्वविषयावरण एवं स्वनिवर्त्य तादृशवस्त्वन्तर शब्द से मूलाज्ञान का ग्रहण शक्य न होने से घटाविज्ञानरूप प्रमाणज्ञानपक्षक इस अनुमान से मूलाज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती।
[ विशेषण भेद करने पर अतिप्रसंग ] यदि यह कहा जाय कि "प्रज्ञान मूलतः एक है । वही अनवच्छिन्न ब्रह्मविषयक होने से 'मूलाज्ञान' और घटाधवच्छिन्न चैतन्यविषयक होने से 'घटादिविषयक अज्ञान' कहा जाता है और विशेषणभेद से विशिष्ट में भेद नहीं होता। इसलिये घटादिज्ञान के विषयावरण और घटादिज्ञान से निवर्त्यरूप में घटाद्यन्छिनचैतन्यविषयक अज्ञान का ग्रहण होने से मलाज्ञान का भी ग्रहण हो सकता है अत एव इस अनुमान से मूलाज्ञान की प्रसिद्धि की शंका नहीं की जा सकती" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि यदि विशेषणमेव से विशिष्टों में भेव न होने के आधार पर मूलाज्ञान को घटादिज्ञान के विषय का प्रावरण और घटादिज्ञान से निवर्त्य माना जायगा तो पटादि के अज्ञान में भी घटज्ञान के विषय के आधरणत्व और घटज्ञान से निवर्त्यत्व को अतिप्रसक्ति होगी। अतः इस रीति से प्रस्तुत अनुमान द्वारा मूलाजान की सिद्धि नहीं हो सकती।
[ तुलाज्ञान विशिष्ट चैतन्य विषयक अज्ञान की अमिद्धि ) एवं उक्त अनुमान से 'तूलाज्ञान' प्रवच्छिन्न चैतन्यविषयक अज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि शंख में श्वेत्य की अनुमिति आदि का पक्ष में अन्तर्भाव करने पर बाघ होगा, क्योंकि श्वैत्य के अज्ञान को लेकर उक्त अनुमिति में वह साध्य नहीं रहेगा। उस अनुमिति के होने पर भी पीत्तदोषवश 'शंखो न श्वेतः' यह बुद्धि होती है, अतः यह सिद्ध है कि उससे श्वैत्य के अज्ञान को निवृत्ति नहीं हो सकती। अतः उक्त वस्त्वन्तर शब्द से श्वत्य के अजान को लेकर उक्त अनुमिति में वह साध्य नहीं रहेगा।
यदि उसे पक्षबहिमूत कर दे तो उसमें उक्त हेतू में साध्य का व्यभिचार होगा। क्योंकि श्वत्यानुमिति में प्रागभावरूप स्वविषयावरण को लेकर स्वविषयावरणनिवृत्तिजनकरवरूप हेतु रहता है किन्तु उक्त साध्य नहीं रहता। इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-"श्वत्यानुभिति को पक्ष में अन्तभूत करने पर भी बाध नहीं होगा क्योंकि साध्य की कुक्षि में स्वनिवृत्ति के प्रतिबन्धकाभाव विशिष्टस्वविषयावरण में स्वनिवर्त्यत्व के निवेश से उक्त अनुमिति में साध्य का सद्भाव उपपन्न हो सकता है, क्योंकि अनुमिति के विषयीभूत श्वत्य का आवरणभूत अज्ञान अपनी निवृत्ति के प्रतिबन्धक पीत्तदोष के रहने से ही उक्तानुमिति से निवर्त्य नहीं होता, किन्तु उक्त प्रतिबन्धकाभाव होने पर