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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो०७
किसी एक प्रतिभास में उतने हेतुओं का संनिधान हो जाने पर भी वे सब प्रतिभास के कारण हैं।' इस नियम की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः शमदमादि और श्रवणादि की आवत्ति के अभाव के प्रसंग का परिहार नहीं हो सकता।।
किच, भ्रमहेतोरज्ञानाद् नाधिष्ठानज्ञानोत्पत्तिरन्यत्र दृष्टा । न हि शुक्त्यज्ञानाद् रजतभ्रमः, तत एव च शुक्तिज्ञानमिति । 'अविद्यया मृत्यु तीा-शास्त्रात् तथा कल्प्यत' इति चेत् ? न, शास्त्रस्य स्वप्नतुल्यत्वात् , शमाद्यनुपसंग्रहानुद्धाराच । अथ लोकेऽज्ञानातिरिक्तकारणाभावेऽपि वेदेयागादौ म्वर्गादिसाधनता संमतैव । ततश्च यागादेः स्वर्गादिसायनत्वं प्रतीत्यागमनुतिष्ठतामुरपन्नस्य स्वर्गसूक्ष्मरूपस्य यागसूक्ष्मरूपस्य वाऽपूर्वस्य स्वर्गजनकत्वम् , अन्यथाऽव्यवस्थाप्रमङ्गाद, ततश्च वेदान्तेष्वप्याश्वासात् शमादिसंपत्या ब्रह्मज्ञानसिद्धिरिति चेत ? न, लोकसिद्धकार्यकारणभावपरित्यागे वेदेऽप्यनाश्वासात् । न हि स्वप्रयोजनमपेक्ष्यक प्रमाणं अपरं चाप्रमाणं भवितुमर्हति । न च बलववाद या प्रमाण, नतु प्रत्यापिकमिति यायम्, प्रत्यचादिवाधितेऽर्थे वेदाऽप्रामाण्येन प्रत्यक्षादीनामेव वलयत्वात् ।
[ श्रमोत्पादक अज्ञान से अधिष्ठानज्ञान का असंभव ] दूसरी बात यह भी है कि जिस अज्ञान से भ्रम की उत्पत्ति होती है उससे अधिष्ठान ज्ञान को उत्पत्ति कहीं अन्यत्र नहीं देखी गयी है क्योंकि जिस शुक्ति के अज्ञान से रजतभ्रम होता है उसी से शुक्तिज्ञान कभी नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि 'अविद्यया मत्युतीत्वा विद्ययामतमश्नुते' =मुमुक्षु अविद्या से मृत्यु-देहात्मतादात्म्यभ्रम को दूर कर विद्या से अमतत्व को प्राप्त करता है इस शास्त्र के अनुरोध से भ्रम फे हेतुभूतअज्ञान से अयिष्ठानज्ञानोत्पत्ति की कल्पना की जा सकती है"-- तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि दृष्टिसष्टिवाद में शास्त्र भी स्वप्नतुल्य है। साथ ही शमदमादि की अनुपादेयता की अम्पत्ति का उद्धार फिर भी नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'लोक में यद्यपि पदार्थ का, प्रज्ञान से अतिरिक्त, कोई कारण मान्य नहीं है किन्तु पेव में यागादि की स्वर्गादिसाधगता मान्य है । अतः वेद से यागादि में स्वर्गादिसाधनता का ज्ञान प्राप्त कर याग का अनुष्ठान करने वालों को सूक्ष्मस्वर्गरूप अथवा सुक्ष्मयागरूप अपूर्व उत्पन्न होता है और वही कालान्तर में स्वर्ग का जनक होता है । क्योंकि ऐसा न मानने पर अव्यवस्था हो जायगी । अर्थात याचादि के अनुष्ठान न करने वालों को भी स्वर्गादि की प्राप्ति का प्रसङ्ग होगा। इस प्रकार वेदान्तों में भी विश्वास होने से अर्थात् शमवमादि आत्मज्ञान का कारण है-इस वेदान्तोपदेश पर आस्था होने से शमावि के सम्पादन द्वारा ब्रह्मज्ञान की सिद्धि होगी।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि लोफसिद्ध कार्यकारणभाव का परित्याग करने पर वेदनोध्य कार्यकारणभाव में भी शनवास अनिवार्य
योंकि समान दो वस्तु में, व्यक्ति के अपने प्रयोजन के प्राधार पर एक प्रमाण और दूसरा प्रप्रमाण नहीं हो सकता। 'वेद बलवान् होने से प्रमाण है-यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित अर्थ में वेद अप्रमार होने से प्रत्यक्षादि प्रमाण हो वेद की अपेक्षा बलवान् है ।
किच, याग स्वर्गादिहेतुहेतुमद्भाव प्रतिपादयन वेदः स्वप्नयागस्वर्गयोपि हेतु-हेतुमद्भावं