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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
नहीं हो सकता
हो सकेगी। श्राशय यह है कि यदि तत्तत्काल में अज्ञान में स्वभावभेद का आधान नहीं होगा तो सभी काल में अज्ञान एकरूप ही रहेगा । अतः विभिनकाल में होने वाले कार्यों को एककाल में हो उत्पत्ति की प्रापति होगी। क्योंकि faraकालों में विभिन्न कार्यों का उत्पादक जो प्रज्ञान वह सर्वत्र एकरूप है । यदि कालभेद से अज्ञान में स्वभावभेद का आधान माना जायगा तो स्वभावभेव सावि ( श्रादि वाला) होने से तदात्मना अज्ञान भी सादि हो जायगा । श्रतः श्रज्ञान को अनादिता समाप्त हो जायगी ।
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किञ्च, एवं लोकसिद्धदण्ड घटादिकार्यकारणभाववत् शब्द सिद्धयागस्वर्गाद्यगम्यागमननरकादिसाध्यसाधनभावस्यापि स्वानिकतुल्यत्वात् वेदान्तेष्वप्यनाश्वासप्रसङ्गाच्च वेदान्तिन यथेष्टाचरणप्रसङ्गात् । यदि हि विहितात् स्वर्गः निषिद्धाद् नस्को वा न स्याद, किमर्थं तहिं विहितमनुतिष्ठन्तः निषिद्धं चाऽवर्जयन्तः क्लिश्येरन् ! इति । अपि च, अनात्मदृष्टिसृष्टेरनवसानप्रसङ्गः । न चाधिष्ठानज्ञानात् तदवसानम्, तद्धेत्वभावात् । 'अज्ञानं तद्धेतुरिति चेत् १ ज्ञानतोऽमत्यपि दण्डादौ घटाद्युत्पत्तिवत् शापाद्यसवेऽपि तत एवाधिष्ठानज्ञानोत्पत्तेः शमाधननुष्ठानप्रसङ्गात् । 'भ्रान्त्या तदनुष्ठानमिति चेत् १ न सकृद्वेदान्तार्थश्रवणवतां तदभावप्रसङ्गात् । न च प्राथमिकपदप्रतिभासे दण्डाद्यपेक्षावत् प्राथमिकाऽधिष्ठानज्ञाने शमाद्यपेतोपपत्तिः, क्वचित् तावत्प्रतिभासद्दे तूपनिपातेऽपि नियमाsसिद्धेः ।
[ दृष्टि-सृष्टिवाद में दोष परम्परा ]
इस मत में दूसरा दोष यह है कि--जैसे घटादि और दण्डादि में लोकसिद्ध कार्यकारणभाव स्वप्नतुल्य है उसी प्रकार स्वर्गादि का यागादि के साथ एवं नरकादि का अगम्यागमनादि के साथ शास्त्रसिद्ध कार्यकारणभाव भी स्वप्न तुल्य हो जायेगा । एवं शमवमावि में आत्मज्ञानसाधनता के बोधक वेदान्त में भी अनास्था को प्रसक्ति होगी। फलतः यथेष्टाचरण में वेदान्ती की प्रवृत्ति का प्रसङ्ग होगा । एवं यदि विहित कर्म से स्वर्ग और निषिद्ध कर्म से नरक नहीं होगा तो मनुष्य विहित कर्म के अनुष्ठान और निषिद्धकर्म के परिवर्जन का क्लेश क्यों करेंगे ! एवं आत्मभिन्न पदार्थों की दृष्टि-सृष्टि का श्रावसान कभी नहीं होगा। इसके प्रतिवाद में यह नहीं कह सकते कि 'अधिष्ठानज्ञान से भी उसका अवसान होगा'-क्योंकि अधिष्ठानज्ञान का कोई हेतु हो नहीं है। "अज्ञान ही अधिष्ठान का हेतु है - यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे इस मत में दण्डादि के प्रभाव में भी श्रज्ञान से घटादि की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार शमदमादि के अभाव में भी अज्ञान से ही अधिष्ठानज्ञान की उत्पत्ति हो जाने से शमदमादि का अनुष्ठान अनावश्यक हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि' शमदमादि में अधिष्ठानज्ञानसाधनता के भ्रम से शमदमादि का अनुष्ठान होता है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जो लोग एक बार वेदान्तार्थ का श्रवण कर लेंगे उन में शमदमादि के अनुष्ठानाभाव का प्रसङ्ग होगा क्योंकि श्रवणादि की आवृत्ति में वेदान्तबोध्य श्रधिष्ठानज्ञानसाधनता भी स्वाप्तिक साधनता तुल्य है, अधिष्ठानज्ञान केवल प्रज्ञान से ही होता है । यदि यह कहा जाय कि 'जैसे घट के प्राथमिक प्रतिभास में दण्डादि की अपेक्षा होती है किन्तु द्वितीयादि प्रतिभास में नहीं होती, उसी प्रकार अधिष्ठान के प्राथमिक ज्ञान में शमदमादि की अपेक्षा होगी' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि