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[ शास्त्रवार्ताः स्त०८ श्लो. ७
क्रमिकाज्ञानेभ्यः कार्यभेदनिर्वाह' इति चेत । न, एकस्य तस्य जन्यनानाऽज्ञानजननेऽप्यस्य प्रसङ्गस्य तुल्यत्वात् । 'कालभेदान ततो भिन्नभिन्नकार्योत्पत्तिसंभव' इति चेत् ? कालभेदादेव तहि कार्यभेदनि हे दत्तोऽशानाय जलाञ्जलिः । न चैकस्य स्वभावभेदं विना कालभेदस्यापि सहकार, ल च गामनादित्वेनेति ।
[दृष्टिसृष्टिवाद का प्रतिक्षेप-उत्तर पक्ष ) दृष्टिसृष्टिवाद पर अवलम्बित वेदान्ती का उक्त कथन समीचीन नहीं है क्योंकि 'नीलं सत्' 'पीतं सत्' इत्यादि प्रतोति के अनुरोध से अधिष्ठानभूत सत नीलाथाकार होता है और नीलाधाकार 'नीलं नष्टम् पोतं नष्टम, इत्यादि प्रतीति के अनुरोध से अस्थायी होता है अतः नीलाद्याकार से सद्रूप अधिष्ठान में अस्थायित्व का दर्शन होने से अधिष्ठान का स्थायित्व असिद्ध है ।
_ यदि यह कहा जाय कि-"नीलाघाकार चैतन्य में अध्यस्त है, चैतन्य से अतिरिक्त है; और साक्षि चिद्रूप एवं स्थायि है और वही दृष्टि सष्टिघाव में समस्त पदार्थों के अध्यास का अधिष्ठान है। अतः नीलाद्याकार के अस्थायी होने से अधिष्ठान की अस्थायिता नहीं सिद्ध होती।"-तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि नीलादि से मुक्त चिद्रप की प्रतीति नहीं होती अतः नीलादिमुषत चिद्रूप को सत्ता है ही नहीं।
- यदि यह कहा जाय कि-"ऐसा नियम है-'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यत्र ब्रह्म न भासते' =ऐसी काई प्रतीति नहीं है जिसमें ब्रह्म का भान नहीं होता, क्योंकि घटायाकार वत्त्यात्मक ज्ञान यदि घटाद्यवच्छिन्न चैतन्यवियषक नहीं होगा तो उससे उक्त चैतन्यविषयक अज्ञान की निवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि समानविषय ही अज्ञान और शान में निवत्य निवर्तभाव होता है यह नियम है, इस नियम के अनुसार नीलपीताविविषयक सभी ज्ञानों में एक अनुगत चैतन्य भासित होता है और इसलिये यह चंतन्य स्थायी है'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सभी प्रमाता के प्रति एक अनुगत नोलादिरूप की भी स्थायिता हो जायगी। क्योंकि विभिन्नकाल में एक ही नील का अनेक प्रमाताओं को अनुभव होता है । यदि यह कहा जाय कि 'सन्तानभेव स-प्रमातृभेद से नीलादि में भेद है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार भेद मानने पर नीलादि आकार के भेद से चिद्रूप में भेव क्यों न होगा?
[एक ही काल में एक अज्ञान से सकल कार्य आपत्ति ] __यह जो कहा गया कि 'अनादि प्रज्ञान सफल दृष्टि का हेतु है' वह भी ठीक नहीं है क्योंकि नित्य-स्थायो अज्ञान क्रमिक विविध दृष्टि का हेतु नहीं हो सकता। क्योंकि कारणान्तर का विलम्ब सम्भव न होने से एक कारण से एक काल में ही उसके सम्पूर्ण कार्यों की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा। यदि यह कहा जरय कि-'अज्ञान से क्रमशः उत्पन्न होने वाले अज्ञानों से कार्य विशेष का निर्वाह होगा"तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अकेले एक प्रज्ञान से जन्य विविध अज्ञान का अभ्युपगम करने पर भी एक ही काल में नाना अज्ञानों की उत्पति का प्रसंगरूप दोष समान है। कालभेड से भी अज्ञान द्वारा क्रमिक भिन्न-भिन्न कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि कालभेव से कार्यभेद मानने पर अज्ञान को ही जलाञ्जली हो जायगी क्योंकि तब जो कार्य कालभेव से हुआ किन्तु अज्ञान से नहीं । दूसरी बात यह है कि यदि प्रज्ञान में स्वभावभेद नहीं माना जायगा तो काल भेद उसका सहकारी भी