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स्या०क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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किं न बोधयेत् ? । 'तत्र वेदाप्रामाण्यादिति चेत् ? कुन तर्हि तस्प्रामाण्यम् ? । 'तद्विलक्षणयाग-स्वयोरिति चेत् । न, आभासमानसच्यानङ्गीकारे तद्वैलक्षण्यासिद्धे, सिद्धौ वा दण्डघटादेपि कार्यकारणभावः सिस्येत् । किञ्च, मागएि लायसिद्धबात कथमभ्युपेयम् । "अज्ञानकारणत्यात साक्षिसिद्धमेव तत्, उक्तं हि संस्कारस्य साक्षिसिद्धत्वममियुक्तः
'सुप्तेऽस्मिन् विषयग्रामे योऽसुप्तोऽलुप्तदृष्टितः । वासनारूपकान पश्यन् प्राणान् प्राणिति वायुना ॥
भावनाकारकेक्षित्वादात्मैकः कारकायते ॥' इत्यादाविति" चेत् ? न, सूक्ष्मरूपेण साक्षिसिद्धत्वे तस्य श्रद्धामात्राद, अन्यथा घटादिज्ञानोत्तरमपि सूक्ष्मरूपेण तद्भानोपगमप्रसङ्गश्त ।
[स्वप्न में किये गये याग से स्वर्गोत्पत्ति का प्रसंग ] इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि वेद यदि सामान्यरूप से स्वर्ग-यागादि में कार्यकारणभाव का प्रतिपादन करेगा तो स्वाप्निक स्वर्ग और स्वाप्निकयाग के कार्यकारणभाव का क्यों नहीं करेगा? यदि यह कहा जाय कि-स्वाप्निकस्वर्ग और स्वाप्निकयाग के कार्यकारणभाव में वेव अप्रमाण है-तो यह बताना होगा कि वेद किसमें प्रमाण है ? यदि कहा जाय कि-'स्वाप्निक स्वर्ग और स्वास्निकयाग से विलक्षण स्वर्गयाग को कारणता में वेद प्रमाण है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतीयमान की सत्ता का स्वीकार न करने पर स्वाप्निक स्वर्गयागादि और जानरकालीन स्वर्गयामादि में लक्षप्य की सिद्धि नहीं हो सकती और यदि सिद्धि होगी तो स्थानिक घट-दण्डादि से जाग्रत्कालीन घट-दण्डादि में भी वैलक्षण्य सिद्ध होने से घटादि-दण्डावि में भी कार्यकारणभाव की सिद्धि हो जायगी।
इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि मागादिजन्य अपूर्व भी साक्षिसिद्ध नहीं है-अतः उसका भी अभ्युपगम कैसे किया जा सकता है ? और उसके बिना यागादि से कालान्तर में स्वर्गोत्पत्ति कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि-'अपूर्व अज्ञानकारक है अतः प्रज्ञानकारक शुक्तिरजतादि के समान वह भी साक्षि सिद्ध ही है। क्योंकि मान्य आचार्यों ने संसार को भी साक्षिसिद्ध
है जैसे उनका कहना है कि-सषप्ति के समय जब सम्पूर्ण विषय सप्त अज्ञान में लीन हो जाता है तब भी श्रात्मा प्रसुप्त रहती है अर्थात् जाग्रत्काल के समान ही अवस्थित रहता है । उसकी चैतन्यात्मक दृष्टि लुप्त नहीं हो सकती । अतः उस समय भी यह वासना स्प में विनमान प्राणों का अनुभव करता है और वायु से श्वास-प्रश्वास भी लेता है। उस समय भावनामत्क ईक्षण:संस्काररूप में वस्तु के दर्शन का कर्ता होने से एक आत्मर ही कारकरूप में अवस्थित रहता हैकिन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'पदार्थ सूक्ष्म रूप से साक्षिवेध होता है इसमें केवल श्रद्धा ही प्रमाण हो सकती है । यदि वस्तु का सूक्ष्मरूप में अवस्थान माना जायगा तो घटादिज्ञान के बाद भी लक्ष्मरूप से घटादिभान के अस्तित्व का अभ्युपगम प्रसक्त होगा।
किश्च, अस्मिन पक्षे परचित्ताऽग्रहणे परं प्रति पर्यनुयोगाप्रसङ्गः, तद्ग्रहणं च