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स्या०० टीका एवं हिन्वी विवचन ) तदनधिकारात् , विरक्तस्थातुरम्यापि पूर्ववाक्येनैव संन्यासप्राप्तेः। नापि मनो वाचोविधानम् , तयोरपि पूर्वतः प्राप्तेः । नाप्यातुरे तद्विधानम् , अनाजुरे तत्मापनेव प्राप्तेः । अथ प्राप्त पुनासंकीर्तनमितरांगपरिसंख्यामित्यनेनेतरांगव्यावृत्तिः क्रियत इति चेत् ? न परिसंख्यायास्त्रिदोषत्वात् । श्रुतहान्य-ऽश्रुतकरूपनाप्राप्तबाधास्त्रयो दोषाः । तस्मात् 'यद्यातुर' इत्याद्यम्यासा. धिकरणन्यायेन कर्मान्तरमेव विशिष्टं विधीयते । तस्य च न पूर्वसंन्यासप्रकृतित्वम् , मानाभारात् । न च तत् पूर्वसंन्यासफलेन फलवत् , चोदकपकृत्यभावात् । नापि पूत्रसंन्यासवन् श्रवणांगम् , आतुरत्वसामथ्यस्य बलवच्चात् ।
[आतुर संन्यास वाक्य से किसका विधान !] अातुर संन्यास को जो ज्ञानफलक कहा गया है उस सम्बन्ध में यह विचार करना प्रावश्यक है कि प्रातुरसंन्यासबोधक उक्त वाक्य में क्रिसका विधान होता है ? विचार करने पर यह प्रवगत होता है कि उस में संन्यास का विधान नहीं माना जा सकता । बयोंकि संन्यास पूर्व वाषय से विहित है। अवस्थाविशेष में उससे संन्यास का विधान होता है। यह भी नहीं माना जा सकता क्योंकि आतुर यदि विरक्त नहीं है तो उसका संन्यास में अधिकार ही नहीं है और यदि विरक्त है तो पूर्ववाषय से ही उसे भी संन्यास प्राप्त है। 'संन्यास को उद्देश्य फर मन और वचन का विधान होता है यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन दोनों का भी विधान पूर्वदाय से प्राप्त है। आतुर के लिये भी उसका विधान नहीं किया जा सकता क्योंकि अनातुर में मन और वचन से संन्यास का प्रापक जो वचन है उसी से आतुर में भी प्राप्त है ।
यदि यह कहा जाय कि-"यह ठीक है कि प्रातुर-संन्यास पूर्वतः प्राप्त है किन्तु उसका कथन इतर अङ्ग को परिसंख्या के लिये है । अतः आतुर संन्यासबोधक वाक्य से संन्यास से इतर प्रङ्ग की व्यावृत्ति होती है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि परिसंख्या में तीन दोष होते हैं. १. श्रुतहानि,
तकल्पना और ३. प्राप्तबाध । जैसे, प्रकृत में संन्याससामान्य के जिस अंग की ध्यावत्ति होती है वह अंग भी श्रुत है, उसकी हानि होती है । एवं अश्रुत इतरांगत्याग की कल्पना होती है और व्यायत्तनीय अङ्ग प्राप्त है उसका बाघ होता है । अतः त्रिदोषग्रस्त होने से परिसंस्था नहीं मानी जा सकती।
[ आतुरसंन्यास वाक्य से कर्मान्तर का विधान ] अतः यह मानना उचित है-मीमांसादर्शन के अभ्यासाधिकरण में जो अभ्यस्यमान कर्म को कर्मान्तर मानने का न्याय स्थापित किया गया है उसके अनुसार आतुरसंन्यास वाक्य पूर्वधावय से विहित संन्यास से भिन्न संन्यास संज्ञक कर्मान्तर का विधायक है और वह पूर्वविहित संन्यासप्रतिक अर्थात पूर्वविहित संन्यास का अंग नहीं है, क्योंकि उस में कोई प्रमाण नहीं है । एवं वह पूर्ण संन्यास के फल से फलवान भी नहीं है क्योंकि इस अर्थ को बताने में विधिवाक्य की प्रवृत्ति नहीं है। पूर्व संन्यास के समान यह श्रवण का अंग भी नहीं है क्योंकि उक्त वाक्य में प्रातुर पद का उपादान है प्रत एव उससे उपस्थित प्रातुरत्व हो सामर्थ्य है जिसके कारण उक्त वाक्य आतुरमात्र के ही संन्यास का