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[ शास्त्रवार्ता० स्त०८ श्लो० २
मप्यधिकार कल्पयेयुः । तस्मात् संन्यासिन एवाधिकारः । गृहस्थस्य तु प्रवृत्तस्य दृष्टार्थत्वात श्रवणस्य प्रमाणसंभावनाददृष्टं निष्पद्यत एव । नियमादृष्टं तु नोत्पद्यते, विधेरप्रवृत्तेः, यथा शूदानुष्ठितयागान्तर्गतावधातात् ।
[जन्मान्तरीय संन्यास भी उपयुक्त है ] संन्यास को श्रवणाङ्ग मानने पर जन्मान्तरीय संन्यास का उपयोग अनिष्ट नहीं है क्योंकि जन्मान्तरीय संन्यास से भी दुरितनिवृत्तिरूप द्वार की निष्पति होती है। यदि यह शंका की जाय कि"संन्यास को श्रवण का अङ्ग मानने पर जन्मान्तरोय संन्यास का उपयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि जन्मान्तरोय प्रयाजादि का उपयोग दर्शपूर्णमाद के अनुसार में नहीं होता।" तो पर तीक नहीं है, क्योंकि जैसे अध्ययनावि में जन्मान्तरोपकारकत्व दृष्ट नहीं है फिर भी श्रवणादि में माना जाता है उसी प्रकार प्रयाजादि में जन्मान्तरोपकारकत्व का दर्शन न होने पर भी संन्यास में उसे मानने में कोई विरोध नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि-'यदि संन्यास जन्मान्तर में भी उपकारक होगा तो श्रवणादि में गृहस्थ को भी अधिकार की आपत्ति होगी। पयोंकि उस में भी जन्मान्तरीय संन्यास को सम्भावना है।"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि, जैसे विवेकादि श्रवणावि के अधिकारी का विशेषण है उसी प्रकार संन्यास भी अधिकारी का विशेषण है। अतः संन्यासविशिष्ट ही श्रवण में अधिकारी हो सकता है, संन्यास से उपलक्षित नहीं ।
[ जन्मान्तरीय संन्यास से श्रवणादि अधिकार की सिद्धि असंभव ) दूसरी बात यह है कि-जन्मान्तरीय संन्यास गहस्थ को श्रवणादि में अधिकृत नहीं बना सकता, क्योंकि गृहस्य जन्मान्तर में संन्यासो था उसके निश्चय का कोई उपाय नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-'शास्त्रों में गृहस्थों का भी श्रवण सुना जाता है, अतः उसे श्रवणाधिकारी मानना उचित है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेदानिमत्यादि पर्वोक्त विधिवाक्य से जो संन्सास अङ्ग बताया गया है उसका विरोध होगा। अतः गृहस्थादि के श्रवणादिबोधक वाक्य को अर्थवाद हो मानना उचित है। क्योंकि 'ब्राह्मणो यजेत' इस विधिवात्रय के विरोध के कारण देवता यज्ञ में अधिकृत नहीं होते अतः उन के यज्ञादि श्रवण को अर्थवाद माना जाता है। दूसरी बात यह है कि यदि विदेहराजा गृहस्थजनक को श्रवणावि सुना जाता है इससे यदि श्रवणादि में गृहस्थ का अधिकार स्वीकार किया जायगा तो मैत्रेयी ( महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी) के यज्ञादि का श्रवण होने से यागादि में स्त्री के अधिकार की भी कल्पना प्रसक्त होगी। अतः सिद्ध है कि श्रवणादि में संन्याल का ही अधिकार है, गृहस्थ का नहीं । गृहस्थ पदि श्रवणादि में प्रवृत्त होता है तो श्रवण यद्यपि दृष्टार्थक-प्रदृष्टारिक्तप्रयोजनक है तो भी श्रवण में ग्रहस्थ की प्रवृत्ति से श्रवण की कर्तव्यताबोधक वेदवचन का सम्भावन-सम्मानन होता है । अतः उससे अदृष्ट को उत्पत्ति होती है। केवल नियमादृष्ट उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि श्रवणादि की विधि गहस्थ के उद्देश से प्रवृत्त नहीं है । यही बात याग के अन्तर्गत शूद्रादि द्वारा तण्डुलादि के अवघात के सम्बन्ध में भी है।
यचातुरसंन्यासस्य ज्ञानार्थत्वमुक्तम् तत्र 'यद्यातुर०' इत्यादि वाक्ये किं विधीयते ? न तावत् संन्यासः, तस्य पूर्ववाक्यविहितत्वात् । नापि दशाविशेषे तद्विधानम् , अविरक्तस्य